श्रीविष्णुधर्मोत्तरपुराण धर्मों का महाकोश है। अग्निपुराण, गरुडपुराण और नारदपुराण की गणना सर्वोत्कृष्ट धर्मकोषों में होती है। परन्तु श्रीविष्णुधर्मोत्तरपुराण इन तीनों से विशाल और महत्वपूर्ण है। इस पुराण में सभी मुख्य विद्याओं और ज्ञान-विज्ञान का वर्णन है। इसके उद्धरण हेमाद्रि, स्मृति चन्द्रिका, निर्णय सिन्धु, स्मृति रत्नाकर, कृत्य कल्पतरु, मदन पारिजात आदि निबन्ध ग्रन्थों में और प्राचीन टीकाओं में आप्त होते हैं। इसमें अनेक शास्त्रों और विधाओं का निरूपण है। चित्र सूत्र प्रतिमा शास्व, साहित्य शास्त्र, संगीत शास्त्र, नृत्य शास्त्र, छन्द शास्त्र, काम शास्त्र, न्याय शास्त्र, कोश विद्या, काव्य शास्त्र, राज शास्त्र, वास्तुशास्व, ज्योतिष शास्त्र, शकुन शास्त्र, धनुर्वेद, शस्व विद्याओं के वर्णन हैं। यज्ञ, हवन, दान, पूजा और प्रतिष्ठा आदि की विस्तृत विधियाँ हैं। हंस गीता में विविध धर्मों के वर्णन है। महामुनि मार्कण्डेय और धर्मात्मा राजा वज्र के संवाद रूप में यह विष्णुधर्मोत्तरपुराण सर्वथा अभीष्ट प्रदायक, पाप विनाशक, पुण्य प्रदायक, चतुर्विध पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदाता और भगवद् भक्ति से ओत-प्रोत है। जिज्ञासुओं और साधकों के लिये यह बहुत उपयोगी है।
पुराण भारतीय वाङ्मय की अनुपम निधि है जिसमें प्रधानतापूर्वक इस देश की सभ्यता का और संस्कृति को न केवल बीज रूप में संजोया गया है, बल्कि पुष्पित और पल्लवित रूप में भी किया गया है। पुराणों में सही अर्थों में भारतीय संस्कृति के अनुशीलनकर्ताओं के लिए आधाररेखा खींची गई है और इसी कारण कभी उनकी प्रशंसा भी हुई तो कभी आलोचना भी। किन्तु पुराणों की पृष्ठभूमि श्रोक के रूप में लोक की बुनियाद पर आधारित रही है। जनजीवन के लिए परम्परित प्रमाण के रूप में ‘लोके च वेदे’ आदर्श वाक्य रहा है, तो धर्मशास्त्रों के समानान्तर पुराण का अपना वर्चस्व रहा है और उनको लोक का सबसे बड़ा प्रमाण भी सिद्ध किया गया है। व्रत-उत्सव और पूजन-अर्चन ही नहीं, जीवनोपयोगी व्यावहारिक विषयों के लिए भी पुराणों की विषय-वस्तु आख्यानमूलक होकर भी आदर्श रही है। यों तो इन पुराणों के लक्षण पाँच ही निश्चित रहे- सर्गक्ष प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वतराणि च। वंश्यानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ (मत्स्य. ५३, ६४, विष्णुधर्मोत्तर. ३, १७, ४)
भारत में समय-समय पर अनेक धर्मों और विचारधाराओं का प्रादुर्भाव और विकास हुआ। इनमें भी अवतारवाद
से लेकर जीवनचर्या के रूप में अपनी-अपनी पद्धति का विकास भी हुआ। मान्यताओं के सुदृढ़ीकरण के मूल में प्राचीन
प्रमाणों की जरूरत सदा ही रही और इसीलिए पुराणमाल के रूप में आख्यानों के रूप में जनजीवनोपयोगी विषयों को
पिरोया गया लगता है। चाहे शैव हो या शाक्त, वैष्णव हो या ब्राह्म, सौर हो अथवा गाणपत्य सबके सम्बन्ध में पुराणों की
मान्यताएँ महनीय महत्व रखती हैं। इन सभी मत-सम्प्रदायों के लिए पुराणों का पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन,
व्याख्यान-विवेचन महत्व रखता आया हैं। ये पुराण ब्रह्मादि तीनों प्रमुख देवताओं के लोला प्रसंगों के वर्णन रूप में हैं,
किन्तु यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि कौन सा पुराण किस धर्म का प्रतिनिधित्व करता है ? विष्णु के मत्स्य, कूर्म, वामनादि अवतारों के नाम से लिखे गए पुराणों में शिव-माहात्म्य भी सर्वाधिक मिलता है। पुराणों का यही सहिष्णुतापूर्ण स्वरूप संस्कृति में समन्वयवाद का संचरण करता प्रतीत होता है। इसी कारण वे ज्ञान, यश, आयुष्यादि के पोषक रहे हैं। मत्स्यपुराणकार का स्पष्ट मत है- पुरातनस्य कल्पस्य पुराणानि विदुर्बुधाः । धन्यं यशस्यमानुष्यं पुराणामनुक्रमम् ॥ (मत्स्य. ५३, ७२)
वैष्णव पुराणों में अंशात्मक स्वरूप में पाराशरीय विष्णुपुराण की विषय-वस्तु ने जो प्रथमतः जो आदर्श स्थापित किए, वे अनेकानेक वैष्णवीय पुराणों के सूजन और सम्पादन के सेतु बनकर उभरे। यह मूल पुराणों की कोटि का है और इसका पल्लवन जहाँ धर्मपुराण के रूप में हुआ, वहीं धर्मोत्तर पुराण के स्वरूप में हुआ है। पुराणकारों ने महापुराणों के स्वरूप के साथ ही साथ उपपुराणों और औपपुराणों का संज्ञात्मक और संख्यात्मक परिचय दिया है, वहीं स्थल पुराणों का सन्दर्भ भी दिया है। किन्तु इस वर्गीकरण के मूल में एक कोटीकरण यह भी लक्षित होता है, जैसा कि मैंने शिवधर्मपुराण की भूमिका में प्रस्तुत किया है –
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