गणेशपुराण में वर्णित ऋषि-मुनियों की अप्रतिम शक्तियाँ –
गौतम मुनि ने प्रातः काल बोये गये बीजों से मध्याह्न तक सस्य-सम्पदा (फसल) तैयार कर दी थी तथा दुर्भिक्ष काल में भोजन देकर ऋषियों की प्राण-रक्षा की थी। बालखिल्यों ने यज्ञ करके अन्य इन्द्र बना दिया था, जिसे उन्होंने ब्रह्मादि देवों की प्रार्थना पर पक्षियों का इन्द्र बनाया था। अगस्त्य ने एक चुलुक में समुद्र जल पीकर सुखा दिया था। विश्वामित्र ने ब्रह्मा की सृष्टि से भिन्न अन्य सृष्टि कर दी थी और च्यवन ने इन्द्र की भुजा को स्तम्भित कर दिया था (१/३२/१४-१७)। इन वर्णनों का मूल-स्रोत महाभारत रहा है।
शापानुग्रह-शक्तियाँ –
गणेश जी ने चन्द्रमा को अदर्शनीय होने का शाप दिया था, किन्तु देवों की प्रार्थना पर उन्होंने चन्द्रमा को मात्र एक दिन भाद्रशुक्ल चतुर्थी को अदर्शनीय बनाया था। सावित्री ने देवों को जड़ होने का शाप दिया था, किन्तु देवों की प्रार्थना पर ‘डलयोरभेदः’ नियमानुसार उन देवों को नदी रूप बना दिया था। फलतः शिव एकांशतः वैणी नदी रूप में तथा कृष्ण एकांशतः कृष्णा नदी रूप में परिणत हुए थे (२/३६/१३)। गृत्समद के शाप से मुकुन्दा बदरी वृक्ष की योनि में गयी थी (१/३६/४०-४४) मुकुन्दा के शाप से राजा रुक्मांगद कुष्ठ ग्रस्त हो गया था। भुशुण्डी के शाप से शमीका शमीवृक्ष रूप में तथा मन्दार उसी मन्दार नामक वृक्ष के रूप में परिणत हुआ था (२/३४/२८-२६)।
गणेशपुराण में दार्शनिक विचार
गणेशपुराण में सृष्टि के मूल कारण रूप में सत्त्व, रज और तमो गुणों को मान्यता दी गयी है और रजोगुण बहुल ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता, सत्त्व गुणयुक्त विष्णु को जगत् का रक्षक एवं पालक तथा तमोगुण बहुल रुद्र को संहारकर्ता बतलाया गया है। उक्त तीनों गुणों के अधिपति गणेश जी माने गये हैं अतः उनको गुणेश कहा गया है। सृष्टि का सूत्रपात कश्यप की चौदह पत्नियों से उत्पन्न सन्तानों से बतलाया गया है। गणेशपुराण में प्रतिपाद्य दार्शनिक विचारों में गणेशगीता का उल्लेख अपरिहार्य है। गणेशगीता में श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित विषयवस्तु का सारगर्भित-सारांश प्रस्तुत किया गया है। इसमें दैवी, आसुरी और राक्षसी प्रकृति के वर्णन प्रंसग में राक्षसी प्रकृति के दुर्गुणों की विस्तार से चर्चा की गयी है। संभवतः दुर्जनों को दुश्चरित्र से विरत करके सच्चरित्र में प्रवृत्त करना ही इसका उद्देश्य रहा होगा। श्रीमद्भगवद्गीता के भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग का सार गणेशगीता में है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में अन्यत्र भी कर्म और भक्ति विषयक वर्णन है। भक्तिभाव से प्रदत्त कदन्न भी अमृत से अधिक तृप्तिकारक एवं अश्रद्धा से और दम्भ से प्रदत्त अन्नादिक विषतुल्य कहा गया है’। इस प्रकार के कचन कई स्थानों में है। यह कहा गया है कि भगवान भक्त के कष्ट निराकरण को सदैव उद्यत रहते हैं। यह भी कहा गया है कि सात्त्विक भक्त देव-विग्रह में लीन हो जाता है, राजस भक्त सारूप्य को तथा तामस भक्त सालोक्य को प्राप्त करता है”। ज्ञानयोग की प्राप्ति का माध्यम कर्मयोग ही है। इस प्रसंग में अनेकत्र कर्मयोग की निष्काम कर्म की संस्तुति की गयी है। इसी गणेशगीता में चारों वर्षों के लिए विहित कर्मों का भी निर्देश है (द्र० २१४८/२८-३३)। सत्कर्म के उत्तम फल और दुष्कर्म के दुष्परिणाम की चर्चा भी अनेकत्र की गयी है।
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