शब्द और अर्थ के साथ सम्बन्ध रखने वाली वेदवाणी को ऋषियों ने ज्ञान यज्ञ से प्राप्त किया। उसको मनुष्यों ने ऋषियों में प्रविष्ट पाया और फिर उसको प्राप्त कर ऋषियों ने बहुत स्थानों पर फैला दिया। उस वेदवाणी की रचना गेय गायत्र्यादि सात छन्दों में हुई।’
उपर्युक्त मन्त्र से स्पष्ट है कि परमात्मा ने वेदवाणी का ज्ञान अपने तक सीमित रखने के लिये नहीं दिया है, उसका उद्देश्य मनुष्यमात्र तक पहुँचाना है। जो भी इसको समझ सकता है, उन सब प्राणियों के लिये वेदज्ञान है, परन्तु शब्दात्मक ज्ञान भाषा में आबद्ध होने के कारण निश्चित सीमा क्षेत्र के लिये उपयोगी नहीं हो सकता। उसकी उपयोगिता अर्थ पर आधारित है और उस तक पहुँचने का मार्ग निरुक्त देता है।
वेदज्ञान के महत्त्व का प्रतिपादन करता हुआ वेद स्वयं कहता है- इमे ये नार्वाङ् न परश्चरन्ति न ब्राह्मणासो न सुतेकरासः।
त एते वाचमभिपद्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः ।।१०
‘जो लोग न तो इस लोक में रत रहते हैं और न परलोक की चिन्ता करते हैं, न ब्रह्मज्ञानी बनते हैं और न परोपकर करने वाले कर्म में अपने को लगाते हैं। इस प्रकार के अज्ञानी लोग वेदवाणी को प्राप्त करके पापयुक्त रीति से हल चलाने वाले बनते हैं या फिर कपड़ा बुनते हैं।’
कृषन्नित्फाल आशितं कृणोति यन्नध्वानमप वृङ्क्ते चरित्रैः। वदन् ब्रह्मावदतो वनीयान् पृणन्नापिरपृणन्तमभि ष्यात् ।।”
जो कृषक हल चलाता है, वह अन्न का भोग करता है और जो ऐसा नहीं करता, वह भूखा रहता है। जो चलता है, वही मार्ग को पार करता है अर्थात् जो चलने का प्रयास नहीं करता, वह वहीं का वहीं रह जाता है। प्रवचन करने वाला प्रवचन न करने वाला से श्रेष्ठ है, इसी प्रकार अन्न से दूसरों को तृप्त करने वाला ऐसा न करने वाले से श्रेष्ठ है।
वेद के ये संदेश शब्द तक अध्ययन करने वालों का कल्याण नहीं कर सकते। जो इनके अर्थ को जानता है, वही मन्त्र के मर्म को समझकर और उस पर चलकर कल्याण की प्राप्ति कर सकता है।
मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, ऐसा क्या है, जो निरुक्त के पास अन्य वेदाङ्ङ्गों के पास वह नहीं है। निरुक्त निर्वचनविज्ञान का नाम है। निर्वचन उस प्रक्रिया का नाम है, जिसमें शब्द के वर्तमान स्वरूप से मूल स्वरूप तक की यात्रा की जाती है। इसका स्वरूप व्याकरण में प्रचलित व्युत्पत्ति से भिन्न होता है। व्युत्पत्ति में केवल शब्द के प्रकृति-प्रत्यय को स्पष्ट किया जाता है,
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