आयुर्वेद अनादि एवं शाश्वत है, केवल अवबोध एवं उपदेश के द्वारा समय-समय पर व्यक्त होता रहता है। सामान्यतः यह उपवेद माना जाता है, किन्तु कश्यपसंहिता में इसे पन्चम वेद कहा गया है और अन्य चारों वेदों से इसकी महत्ता प्रतिपादित की गई है। सुश्रुत ने कहा है कि सृष्टि के पूर्व ही ब्रह्मा ने इसे रचित कर दिया था। ये सभी तथ्य आयुर्वेद की शाश्वतता एवं प्राचीनता को ही लक्षित करते हैं।
आयुर्वेद के मौलिक सिद्धांत सहस्रों वर्षों में विकसित हुए हैं। आदिकाल में मानव ने व्याधियों के निराकरण के लिए विभिन्न वानस्पतिक, जान्तव तथा खनिज द्रव्यों का प्रयोग प्रारम्भ किया । मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाइयों से जो सामग्रियाँ प्रकाश में आई है उनसे पता चलता है कि सिन्धु-सभ्यता के काल में भी ऐसी औषधियों का प्रयोग होता था। ऋग्वेद में भो अनेक औषधियों का उल्लेख मिलता है। किन्तु इन प्रयोगों से जब लाभ मिलने लगा तब स्वभावतः यह जिज्ञासा हुई कि यह कैसे होता है और मानव शरीर की क्रियाओं के साथ औषधियों की कर्म-प्रक्रिया क्या है ? वैदिक काल इसी जिज्ञासा एवं चिन्तन का युग था जब महर्षियों ने अपनी तपः-साधना से प्रकृति के अद्भुत रहस्यों का उद्घाटन किया। अन्धकार से प्रकाश की ओर यात्रा का यह उद्घोष था- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ ।
इसी काल में आयुर्वेदीय सिद्धांतों की सुदृढ आधारशिला स्थापित की गई, जिस पच आगे चलकर आयुर्वेदोय महर्षियों ने मौलिक सिद्धांतों की अट्टालिका खड़ी की। पंचभूत स्थूल जगत् के आधार है किन्तु इसमें जड़ता तो प्रतिष्ठित होती है, चतन्य के उन्मेष का द्वार नहीं मिलता। इसी की खोज में त्रिदोषवाद का विकास हुआ जो जीव-जगत् की प्रक्रियाओं की व्याख्या के लिए एक क्रांतिकारी आविष्कार था । जीवन की सारी प्रक्रियाओं की व्याख्या त्रिदोष के आधार पर की गई। स्वास्थ्य एवं व्याधि का स्वरूप भी इसी पर प्रतिष्ठित हुआ और व्याधियों के निदान और चिकित्सा का मार्ग भी इसी से प्रशस्त हुआ। औषधि-विज्ञान में रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव का अनुसन्धान हुआ और इनका सामञ्जस्य त्रिदोष से स्थापित किया गया । इस प्रकार शरीर-क्रिया-विज्ञान, विकृति-विज्ञान तथा द्रव्यगुण-विज्ञान का एक त्रिकोण बना, जो समस्त आयुर्वेद की शक्ति का केन्द्र है।
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