साहित्य समीक्षा – अन्तर्जागरण •
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– भावेश मेरजा
• पुस्तक का नाम : अन्तर्जागरण (नव उपनिषदों के कुछ विशेष प्रकरण)
• लेखिका : श्रीमती उत्तरा नेरूर्कर, बैंगलूरु
• प्रकाशक : झेन पब्लिकेशन्स, मुंबई
• संस्करण : प्रथम, मई 2021
• कुल पृष्ठ : 100
• मूल्य : 150 रूपए
• पृष्ठ साइज़ : 23 से.मी. x 15 से.मी.
विश्व के उत्कृष्ट साहित्य में उपनिषदों की गणना होती है। आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती ने ईश, केन, कठ आदि पुरातन उपनिषदों को आर्ष कोटि के ग्रन्थ मानते हुए उन्हें परत: प्रमाण के रूप में स्वीकृत किए हैं और गुरुकुलीय पठन-पाठन में उनको यथायोग्य स्थान दिए जाने का निर्देश किया है। न केवल इतना ही, बल्कि अपने सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में स्व सिद्धान्तों के प्रतिपादन करने में भी उन्होंने उपनिषदों से सहायता ली है।
आर्य समाज के कई विद्वानों ने उपनिषदों की व्याख्या करते हुए ग्रन्थ लिखे हैं। इसी क्रम में विदुषी बहिन श्रीमती उत्तरा जी नेरूर्कर का यह हिन्दी ग्रन्थ नवीनतम कड़ी है।
लेखिका ने इसके पहले भी उपनिषदों को लेकर दो उत्तम ग्रन्थ अंग्रेजी में लिखे हैं –
1. The Causeless Cause: The Eternal Wisdom of Swetaashwatara Upanishad (द कोज़लेस कोज़ – दि इटर्नल विज़्डम ऑफ़ श्वेताश्वतर उपनिषद् ) और
2. The Smokeless Fire: Unravelling the Secrets of Isha, Kena and Katha Upanishads (द स्मोकलेस फायर – अनरिविलिंग द सिक्रेट्स ऑफ़ ईश, केन एण्ड कठ उपनिषद्)
ये दोनों ग्रन्थ ऐमैजौन् आदि पर उपलब्ध हैं और पर्याप्त लोकप्रिय सिद्ध हुए हैं।
अन्तर्जागरण में लेखिका ने कुल 17 प्रकरणों के माध्यम से ईश और माण्डूक्य इन दो को छोड़कर शेष नव प्रमुख उपनिषदों के कुछ चुने हुए महत्त्वपूर्ण स्थलों की सुंदर विवेचना प्रस्तुत की है, जो न केवल रोचक है, बल्कि बुद्धिगम्य, तार्किक एवं वैदिक तत्त्वज्ञान के अनुकूल है। इसमें इन उपनिषदों की विषयवस्तु का संक्षिप्त परिचय दिया गया है और ऋषियों के चिन्तन को उजागर करते हुए उसकी उत्कृष्टता प्रकाशित की गई है। लेखिका ने इस ग्रन्थ में कई स्थानों पर प्रचलित भाष्यों के अर्थघटन से हटकर स्व चिन्तन तथा ऊहा के बल पर तथा पदों के निर्वचन के आधार पर नवीन अर्थ भी प्रस्तुत किए हैं और इन उपनिषदों के कुछ ऐसे गूढ़ स्थान भी इंगित किए हैं जो समझने में अति दुरूह प्रतीत होते हैं या जिनकी वेद या तर्क संगत व्याख्या करना अपेक्षित है। ग्रन्थ में यथास्थान स्वामी दयानन्द के मत को भी संगृहीत किया गया है और अद्वैत परक प्रतीत होनेवाले वाक्यों पर विशेष समालोचना करते हुए वैदिक त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।
आशा है कि उत्तरा जी की इस नवीनतम कृति का आर्यसमाज के क्षेत्र में समादर होगा, जिससे उपनिषत्कार ऋषियों के वैदिक चिन्तन को समझने में तथा वैदिक तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार में सहायता मिलेगी।
ग्रन्थ की भाषा सरल, सुबोध एवं रोचक है। छपाई, गैटअप, काग़ज़ उत्तम है।
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