भारतीय संस्कृति में वेदों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामान्यरूप से वेद से अभिप्राय ऋक्, यजुष, साम तथा अथर्व से ग्रहण किया जाता है, किन्तु वेदों के मन्त्रात्मक भाग के अतिरिक्त इनके व्याख्याग्रन्थ ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद को भी वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ही माना गया है। इनके अतिरिक्त वेदांग भी वेदों के अभिप्राय को समझाने के लिए निर्मित किए गए, जिनमें कल्प- सूत्रों का प्राचीन भारतीय समाज, सभ्यता-संस्कृति, अध्यात्म तथा दार्शनिक चिन्तन आदि अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व है। इसमें तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।
इन ग्रन्थों के अन्तर्गत यज्ञ-विषयक अनुष्ठानों में प्रयोग की जाने वाली विधियों के निर्देश दिए गए हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थों का यज्ञयागादि का विधान अपनी प्रौढ़ि पर था । अत्यधिक विस्तृत होने से, इसके क्रमबद्ध रूप में निबद्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गयी ।
अतः युग के अनुरूप सूत्रात्मकशैली में इन ग्रन्थों की रचना हुई। वस्तुतः मन्त्रों के चिन्तन, मनन तथा विनियोग की सुदीर्घकालीन परम्परा में वैदिक ऋषि, व्यक्ति के परिवार तथा समाज के लिए, उसे व्यवस्थित करने की दिशा में चिन्तंन करते रहे, जिसे आरम्भ में उपदेशरूप प्राप्त हुआ, बाद में इसी को लिपिबद्ध करने से सूत्रग्रन्थ अस्तित्व में आए, इन्हीं को आचार – शास्त्र अथवा धर्मशास्त्र की संज्ञा भी प्रदान की गयी ।
Reviews
There are no reviews yet.