पुस्तक परिचय
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• शीर्षक : आर्यसमाज और महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ (तृतीय)
• लेखक : डॉ. बंसीधर शर्मा
• प्रकाशक : श्री सयाजी प्रतिष्ठान, महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा
• संस्करण : प्रथम, मई 2022
19वीं शताब्दी के भारतवर्ष के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय उन्नयन के इतिहास में जिन महापुरुषों के योगदान को स्वर्णिम पृष्ठों में लिखा जायेगा, उसमें महर्षि दयानंद सरस्वती का नाम अग्रिम पंक्ति में होगा। उन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वैदिक तत्त्वज्ञान और वैदिक जीवनशैली को पुनर्जीवित करने का भगीरथ प्रयास किया और जनता का बहुविध शोषण करने वाली विभिन्न स्थापित एवं शक्तिशाली स्वार्थी ताकतों से अविरत संघर्ष करते हुए नवजागरण का सूत्रपात किया। पूरी तरह से वेदों तथा वैदिक शास्त्रों की दिव्य शिक्षाओं से अनुप्राणित महर्षि दयानंद सरस्वती ने प्राणपण से देश के सामाजिक जीवन को मध्यकालीन अंधेरी गुहा से निकालकर प्राचीन वैदिक-जीवन पद्धति को अपनाने का अलख जगाया था। वे विशुद्ध वैदिक या भारतीय संस्कृति के उत्पाद थे। अपने ओजपूर्ण एवं प्रमाणसभर व्याख्यानों के द्वारा एवं आवश्यकता पड़ने पर लेखन और शास्त्रार्थ करके भी उन्होंने पौराणिक पंडितों को ललकारा और पराभूत किया और वैदिक जीवन प्रणाली अपनाने के लिए विवश किया था। दूसरा महत्वपूर्ण कार्य स्वामी दयानंद ने देश को पराधीनता से मुक्त कराने हेतु अनगिनत लोगों को देशभक्ति, राष्ट्रीयता और स्वाभिमान के रंग में रंग दिया था। उनके ही जीवन व कार्यों से प्रेरणा पाकर देशभक्त युवकों की एक ऐसी श्रेणी तैयार हुई जो भारत माँ को बंधन-मुक्त करने के लए सर्वस्व त्यागकर स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़ी थी।
स्वामी दयानंद ने तत्कालीन कई देशी राज्यों के शासकों तथा अग्रगण्य महानुभावों को स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वभाषा, राष्ट्रीय स्वाभिमान, स्वदेशी और स्वराज्य के लिए जाग्रत करने का उपक्रम चलाया था कि जिससे मातृभूमि को पराधीनता के बंधनों से विमुक्त कर वैदिक समाज व्यवस्था को चरितार्थ किया जा सके। वास्तव में स्वामीजी इन शासकों को राष्ट्रीय जागरण और सामाजिक सुधारों का माध्यम बनाना चाहते थे। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने “आर्यसमाज” का प्रवर्तन किया और अपने भाषणों, प्रवचनों, शास्त्रार्थों, ग्रंथों आदि के माध्यम से देश में चतुर्दिक वैदिक आलोक फैलाकर नवजागरण के बहुविध कार्यक्रम चलाए। इसी क्रम में गायकवाड़ सरकार के आमंत्रण पर स्वामी दयानंद सरस्वती 1875 के नवम्बर/दिसम्बर में व्याख्यान देने के लिए बड़ौदा पहुँचे थे और अपने तेजोमय भाषणों से उन्होंने बड़ौदा राज्य को आर्यसमाजमय बना दिया था। यहाँ वे तीन माह तक रहे और 1876 के मार्च में यहाँ से प्रस्थान किया था। बड़ौदा में आर्यसमाज की स्थापना का श्रेय भी स्वामी जी को ही जाता है।
यद्यपि महाराजा सयाजीराव (तृतीय) उस समय अल्पवयस्क थे और शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, पर सत्ता के सूत्र हाथ में लेने के कुछ ही वर्षों में उन्होंने महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा निर्देशित राजधर्म का परिपालन करते हुए अपने सुशासन एवं जनकल्याणकारी कार्यों से सम्पूर्ण देश में प्रगतिशील एवं प्रजावत्सल “आर्य नरेश” होने का यश अर्जित किया। वे उन युवा नरेशों में थे जिन्होनें आर्यसमाज के उद्देश्य और आदर्शों को पूरी तरह आत्मसात किये हुए थे। वे स्वामी दयानंद जी के प्रशंसकों और अनुयायियों में से एक थे। आर्यसमाज के कार्यों से प्रभावित होकर वे भी उत्कट और अदम्य देशभक्ति का वरण करके सम्पूर्ण देश में जागरण का शंख फूंकते रहे और राष्ट्रव्यापी यश के पात्र हुए। बड़ौदा राज्य में समाज सुधार, शिक्षा, साहित्य, कला तथा अन्य संस्कारजन्य जो महत्वपूर्ण उपक्रम हुए उसमें आर्यसमाज के प्रकाण्ड वैदिक विद्वान स्वामी नित्यानंद जी, स्वामी विश्वेश्वरानंद जी और पं. आत्माराम अमृतसरी का महाराजा सयाजीराव को बराबर मार्गदर्शन मिलता रहा और इसके कारण बड़ौदा एक “संस्कार नगरी” के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
महाराजा सयाजीराव ने अपने राज्य में स्वामी दयानन्द जी की शिक्षाओं को क्रियान्वित करने के लिए संनिष्ठ प्रयास किए। दलित वर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा का प्रबंध करना, सब के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करना, हिन्दी को लोकप्रिय बनाना, संस्कृत का संवर्धन करना, जनजागृति के लिए उत्तम पठनीय साम्रगी युक्त पुस्तकों को प्रकाशित कर जनता के लिए सुलभ करना, जन्म आधारित जातिप्रथा का उन्मूलन करना, न्याय प्रणाली में सुधार करना आदि अनेक कार्य महाराजा सयाजीराव के शासन काल में हुए। आर्यसमाज और महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ (तृतीय) के सम्बन्धों की कहानी अभी तक अज्ञात बनी हुई थी। डॉ. बंसीधर जी की यह पुस्तक पहली है जो आर्यसमाज के बारे में अज्ञात सामग्री प्रकाश में ला रही है और इन सम्बन्धों को उजागर कर रही है।
डॉ. बंसीधर जी ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण कृति में महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ और आर्यसमाज के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत कर एक अति आवश्यक कार्य की पूर्ति की है। पुस्तक प्रामाणिक स्रोतों के आधार पर लिखी गई है और अपने विषय को अत्यंत प्रभावोत्पादक शैली में प्रस्तुत करती है। इसमें आर्यसमाज के स्वर्णिम इतिहास के गौरवास्पद पृष्ठ संगृहित हैं। देश को विदेशी शासन से मुक्त कराने के लिए अपने अमर ग्रंथ “सत्यार्थप्रकाश” में स्वराज की बात करते हुए महर्षि दयानंद ने स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी थी। वडोदरा के तत्कालीन महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ (तृतीय) ने भी महर्षि के इस पावन उद्देश्य को आत्मसात करते हुए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने आर्यसमाज की विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए देश की सर्वांगीण क्रांति में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए थे, जिसकी विस्तृत जानकारी हमें इस ग्रंथ के माध्यम से मिलती है। इस पुस्तक के अध्ययन से वे सभी पाठक निश्चित रूप से लाभान्वित होंगे जो महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ के सुशासन की लोकप्रियता के रहस्य जानना चाहते है और यह जानने के इच्छुक है कि उन पर स्वामी दयानंद और उनके द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज के कार्यों व शिक्षाओं का कितना गहरा प्रभाव रहा था। यह पुस्तक अन्य कई विद्वानों और लेखकों को भी स्वामी दयानन्द जी से संबंधित अन्य अप्रकाशित तथ्यों, घटनाओं और कहानियों को कलमबद्ध करने को प्रेरित करेगी।
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