पुस्तक का नाम – आर्यसमाज का इतिहास (7 भागों में)
लेखकों के नाम – सत्यकेतु विद्यालंकार
प्रोफेसर हरिदत्त वेदालंकार
डॉ.भवानीलाल भारतीय आदि।
सदियों की मोह निन्द्रा के पश्चात् उन्नीसवीं सदी के मध्य भाग में पुनःजागरण और धार्मिक सुधारणा के जिन आन्दोलनों का सूत्रपात भारत में हुआ, महर्षि दयानन्द सरस्वती तथा आर्यसमाज का उनमें प्रमुख कर्तृत्त्व था। आर्यसमाज कोई नया सम्प्रदाय, मत या पन्थ नहीं है। वह एक ऐसा संगठन या समुदाय है, जिसके सुनिश्चित उद्देश्य और सुनिर्धारित नियम है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है। इस समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द आधुनिक भारत के सबसे महान चिन्तक थे। धर्म, दर्शन, समाज संगठन, राज्यसंस्था और आर्थिक व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में जो विचार उन्होंने अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किए हैं, उनसे न केवल भारत, अपितु सम्पूर्ण विश्व व मानवसमाज का वास्तविक हित कल्याण हो सकता है। इस आर्य समाज में आज सभी वर्ग, स्थान के लोग सम्मलित है। महर्षि दयानन्द के बाद उनके अनेकों अनुयायियों ने देश – धर्म की सेवा में अपना योगदान दिया था। इन सबका एक विशाल इतिहास है किन्तु यह इतिहास एक स्थान पर समुपलब्ध नही होता है। इसी समस्या का हल करने के लिए सत्यकेतु विद्यालंकार के नेतृत्व में अनेकों विद्वानों ने आर्य समाज का विस्तृत इतिहास 7 भागों में “आर्य समाज का इतिहास” नाम से प्रकाशित किया है। इन सात भागों की विषय वस्तु निम्न प्रकार है –
1) प्रथम भाग – इस भाग में आर्य समाज का उसकी स्थापना से लेकर 1883 तक का इतिहास लिपिबद्ध है। इसमें स्वामी दयानन्द जी के जीवन चरित के साथ – साथ उनके सहयोगी और उनसे सम्बद्ध व्यक्तियों जैसे – श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा, गोपालरावहरि देशमुख, गोविन्द रानाडे, केशवसेन, रमाबाई, पण्डित भीमसेन शर्मा, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, मुंशी समर्थदास, पण्डित ज्वालादत्त आदि विद्वानों के कार्यों का और उनसे स्वामी जी से सम्बन्धों का वर्णन किया है। इस भाग में 1857 के विद्रोह और उस समय स्वामी जी की स्थिति का भी वर्णन किया है। स्वामी जी से सम्बद्ध लोगों के भी चित्रों को भी इस भाग में दिया गया है।
2) द्वितीय भाग – इस भाग में 1883 से 1947 तक के आर्य समाज के इतिहास का वर्णन किया गया है। इसमें महर्षि के पश्चात् के कुछ वर्षों में आर्य समाज के मुख्य व्यक्तियों और आर्य समाज की तत्कालीन स्थिति का विवरण प्रस्तुत किया गया है। देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित आर्य समाजों जैसे – पंजाब, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि के आर्य समाजों का वर्णन हैं। भारत से बाहर मारीशस, अमेरिका, अफ्रीका, सिंगापुर आदि स्थानों के आर्य समाज स्थापना के इतिहास का वर्णन है।
3) तृतीय भाग – इस भाग में शिक्षा के क्षेत्र में आर्यसमाज के क्रिया कलापों का वर्णन है। इस भाग में दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूल और कॉलिजों के इतिहास, गुरूकुल काँगड़ी की स्थापना का इतिहास, स्त्रीशिक्षा में आर्यसमाज के क्रियाकलाप की पृष्ठभूमि का वर्णन है। आर्यसमाज द्वारा स्थापित विभिन्न गुरुकुल जैसे – कन्या महाविद्यालय, जालंधर, गुरुकुल विश्वविद्यालय, वृन्दावन, गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर, गुरुकुल विद्यापीठ हरयाणा आदि गुरुकुलों के इतिहास को उल्लिखित किया गया है।
4) चतुर्थ भाग – इस भाग में 1875 से 1926 तक आर्य समाज के इतिहास का वर्णन है। इसमें पंजाब में कांग्रेस के विकास में आर्य समाज की भूमिका का मुख्य रूप से वर्णन किया है। आर्य समाज संस्थान पर सरकारी प्रकोप के विभिन्न कारणों का विस्तारित वर्णन किया गया है। आर्य समाज पर विभिन्न समाचार पत्रों की प्रतिक्रियाओं का सङ्कलन किया गया है। ब्रिटिश समाचार पत्रों में आर्यसमाज का वर्णन किया है। आर्य समाज को भारतीय सेना में भर्ती पर प्रतिबन्ध के कारणों की समीक्षा की गई है। अंग्रेजी सरकार द्वारा आर्यसमाज पर लगाये विभिन्न अभियोगों का वर्णन किया गया है। लाला लाजपतराय के योगदान और उनके आर्यसमाज में प्रवेश का ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है। आर्य समाज के प्रमुख क्रान्तिकारियों और परिशिष्ट में केसरीसिंह बारहठ की ऐतिहासिक कविता को सम्मलित किया है। महात्मा गांधी और आर्यसमाज के मत भेदों को इस भाग में सम्मलित किया है।
5) पंचम भाग – इस भाग में साहित्य के क्षेत्र में आर्यसमाज का कार्यकलापों का वर्णन किया है। इसमें आर्य समाज द्वारा विभिन्न ग्रंथों पर किये गये भाष्यों, सम्पादन, अनुवादों का वर्णन है। आर्य सिद्धान्त विषयक विविध शास्त्रों का वर्णन किया है। ऋषि दयानन्द विभिन्न साहित्यों का वर्णन है। आर्यसमाज द्वारा लिखे विभिन्न खंडनात्मक साहित्यों तथा परम्पराओं का वर्णन है। स्वामी पर लिखे जीवन चरित्र विषयक विभिन्न ग्रंथों का परिचय दिया गया है। इस प्रकार अनेकों साहित्यों का वर्णन इस भाग में किया है।
6) षष्ठ भाग – इस भाग में स्वराज्य संघर्ष में आर्य समाज का योगदान सन 1926 से 1947 तक आर्यसमाज का इतिहास सङ्कलित है। जिसमें आर्य समाज के स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न योगदान का वर्णन किया गया है। आर्यसमाज के गौरक्षा आन्दोलन का वर्णन किया गया है। आर्यवीर दल की स्थापना, आर्यवीर दल के सेवाकार्यों का वर्णन किया है।
7) सप्तम भाग – इस भाग में गतवर्षों में आर्यसमाज की गतिविधियों तथा कपिपय अवशिष्ट विषयों का वर्णन है। इस भाग में आर्य प्रतिनिधि सभा, परोपकारिणी सभा, सार्वदेशिक सभा, वानप्रस्थ आश्रम की स्थापना, योगदान और संघर्षों का इतिहास है। आर्य संगठनों की शिथिलता तथा सूत्रपात का भी वर्णन इस भाग में किया गया है।
इस प्रकार सात भागों में एक स्थान पर आर्यसमाज का विस्तृत इतिहास इन भागों में प्राप्त किया जा सकता है। आर्य समाज के विस्तृत इतिहास के अध्ययन के लिए अलग – अलग साहित्य लेने के स्थान पर पाठकों की आवश्यकता की पूर्ति इन सात भागों को क्रय करने पर हो सकती है अतः आर्यसमाज के इतिहास के अध्ययन के लिए यह साहित्य एक उत्तमोत्तम साधन है।
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