इतिहास की प्रामाणिक स्त्रोत सामग्री के रूप में अभिलेखों का महत्त्व सर्वविदित है। प्रशस्ति, सुरहलेख जैसे शिलालेखों और ताम्रपत्र सहित परवानों का पूर्वापर तथ्यों के अनुशीलन के लिए विशेष महत्त्व होता है क्योंकि ये राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और तत्कालीन नीति-नियमों, पक्षों पर प्रकाश डालते हैं। इनसे कालक्रम का निर्धारण भी होता है और भाषायी व्यवहार का अवबोध तो होता है ही। इतिहास लेखकों ने इनको सुदृढ़ सीढ़ियों के रूप में स्वीकार किया है और इनसे अपने मत-परिकल्पनाओं की पुष्टि भी की है क्योंकि यह माना गया है कि राजलेखक अनेक गुणों से सम्पन्न और अर्हताओं को पूरा करने वाले थे, जैसा कि पत्र कौमुदी में कहा गया है- ब्राह्मणो मन्त्रणाभिज्ञो राजनीति विशारदः । नानालिपिज्ञो मेधावी नानाभाषासन्वितः । मन्त्रणाचतुरो धीमान् नीतिशास्त्रार्थ कोविदः । सन्धिविग्रहभेदज्ञो राजकार्ये विचक्षणः ॥ सदा राज्ञो हितान्वेषी राजसन्निधि संस्थितः। कार्याकार्यविचारज्ञः सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ स्वरूपवादी शुद्धात्मा धर्मज्ञो राजधर्मवित्। एवमादिगुणैर्युक्तः स एव नृपलेखकः ॥ नृपानुवर्ती सततं नृपविश्वासरक्षकः । नृपतेर्हितकान्वेषी स एव राजलेखकः ॥
प्रस्तुत पुस्तक इसी उद्देश्य से तैयार की गई है। ‘भारतीय ऐतिहासिक प्रशस्ति परम्परा एवं अभिलेख’ नामक इस पुस्तक में भूमिका के अन्तर्गत विषय से सम्बन्धित अनेक पक्षों पर ससन्दर्भ-विमर्श किया गया है। राजस्थान के महत्त्वपूर्ण अभिलेखों के सम्पादन और अनुवाद के क्रम में यह विशिष्ट प्रयास है। इसमें लगभग सभी महत्त्वपूर्ण प्रशस्तियाँ शामिल कर ली गई हैं और आवश्यक टिप्पणियों सहित अनुवाद दिया गया है। कुछ परवर्तीकाल की प्रशस्तियों का सार-संक्षेप परिशिष्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कुछ सुरह अभिलेख और ताम्रपत्रादि को भी सम्मिलित किया गया है। सुरह राजस्थानी भाषा का एक विशिष्ट शब्द है जिससे ज्ञात होता है कि वे राजाज्ञाएं जिनको लांघा नहीं जा सकता और जिनके विलोपन पर गोघात जैसे पातक का भागीदार होना पड़ता है।
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