पुस्तक का नाम – भारतीय प्राचीन लिपिमाला
लेखक का नाम – राय बहादुर पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा
अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है जिसके विविध रूप हैं किन्तु उसकी लिखित रूपाभिव्यक्ति के लिए लिपि की आवश्यकता होती है। इसलिए विश्व में प्रायः भाषाओं के लिए लिपि अस्तित्व में रही है। कहा भी है – कण्ठं स्थिते वर्णघोषं लिखितरूपं लिपिकास्तथा। लिपि से यदि भाषा के अस्तित्व को सुरक्षा प्राप्त हुई है तो भाषा के भाव भी सुरक्षित हुए है। भाषा के वैविध्य के साथ-साथ उसकी लिपि की भी विविधता रही है। अतः लिपि के विकास में अपनी सुदीर्घ विकास यात्रा रही है।
भारतीय ग्रन्थों में लिपि के सम्बन्ध में बहुत विचार हुआ है। वेदों में शब्दों के वाचिक और लिखित दोनों रूपों का वर्णन प्राप्त होता है –
“उतः त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मै तन्वं वि सस्त्रे जायते पत्य उशती सुवासाः।।” – ऋग्वेद 10.71.4
इस मन्त्र में वाणी के सुनने और देखने का वर्णन है जो कि भाषा और उसकी लिपि की ओर संकेत करती है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में लिपि के अध्ययन के महत्त्व को बताते हुए कुटील लिपि या गोपनीय संकेतों के अध्ययन की विद्या का वर्णन किया है, जिसके लिए इसमें गूढ़लेख्य (अर्थशास्त्र 1.12.9) प्रयुक्त किया है।
जैन और बौद्धग्रन्थों जैसे कि मंजूश्रीमूलकल्प एवं ललितविस्तार सूक्त में भी लिपियों का वर्णन किया है। ललित विस्तार सूक्त में अनेकों लिपियों का उल्लेख किया है। ललितविस्तार में लिपि को मानव व्यवहार का प्रतीक बताते हुए रूपमयी कहा है – “लिपिऽक्षरदृश्यरूपाम्”
भारत में प्राचीनकाल से वर्तमान काल तक अनेकों लिपियों का प्रचलन रहा है। जिनमें ब्राह्मी, खरोष्ठी, नागरी, शंखलिपि, शारदा, गुरूमुख इत्यादि लिपियाँ प्रचलित है। इनके अध्ययन के लिए इतिहासकारों ने प्राचीन शिलालेखों, दानपत्रों और सिक्कों का अध्ययन आरम्भ किया और उनकें इस शोधकार्यों से भारत की विविध लिपियों की जानकारियाँ सबके समक्ष प्रकट होने लगी। किन्तु प्राचीन लिपियों के प्रयोगों के नगण्य हो जाने के कारण लोग ब्राह्मी और खरोष्ठी जैसी लिपियों को पढ़ना भूल गए थे किन्तु चार्ल्स विल्किन्स, पंडित राधाकान्त शर्मा, कर्नल जैम्स टाँड के गुरू ज्ञान चन्द्र, वाल्टर इलिअट, डॉ. मिल आदि ने अथक् परिश्रम से ब्राह्मी और उससे निकली अन्य लिपियों को पढ़ा एवं उनकी वर्णमाला भी तैयार की। जेम्स प्रिन्सेन ने अगाध परिश्रम से अशोक के समय प्रचलित ब्राह्मी एवं खरोष्ठ का अध्ययन किया और जिससे हमें इन लिपियों को पढंने और अध्ययन की सामग्रियाँ प्राप्त हुई।
इस प्रकार आज अनेकों प्राचीन लिपियों का अध्ययन और शोधकार्य जारी है। इसी कड़ी में प्रस्तुत पुस्तक “भारतीय प्राचीन लिपिमाला” अत्यन्त लाभकारी है।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत की विविध लिपियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है, इसमें लिपि सम्बन्धित प्रत्येक इतिहास पर विवेचना प्रस्तुत की गई है। इस पुस्तक में ब्राह्मी लिपि, खरोष्ठी लिपि, गुप्त लिपि, कुटिल लिपि, नागरी लिपि, शारदा लिपि, बंगला लिपि, पश्चिमी लिपि, ग्रन्थ लिपि आदि की उत्पत्ति और वर्णमाला, संकेतों का वर्णन किया है। इस पुस्तक में इन लिपियों के संकेतों के चित्रों को भी प्रस्तुत किया गया है जैसे –
ब्राह्मी लिपि – इसमें अशोक के शिलालेखों और भट्टिप्रोलु के स्तूपों से प्राप्त संकेतों का उल्लेख किया है। शक और रूद्रदामन के शिलालेखों से भी प्राप्त लिपि के चित्रों को सम्मलित किया है।
गुप्त लिपि – इसमें गुप्त वंशी राजाओं के इलाहबाद स्तम्भ के लेखों और विविध दानपत्रों से प्राप्त लिपि संकेतों का उल्लेख किया है।
कुटिल लिपि – इसमें राजा यशोधर्मन के समय मंदसोर से प्राप्त लेखों और विविध हस्तलिखित पुस्तकों से प्राप्त लिपि संकेतों का सङ्ग्रह किया है।
नागरी लिपि – इसमें जाइंक देव के दानपत्रों, विजयपाल के लेख एवं हस्तलिखित पुस्तकों, देवल, थार और उज्जैन के हस्तलिखित लेखों से प्राप्त लिपि संकेतों का सङ्ग्रह किया गया है।
शारदा लिपि – इसमें सराहां में मिली हुई सात्यकि के समय की प्रशस्ति से, राजा विदग्ध के दानपत्रों से प्राप्त लिपि संकेतों का वर्णन किया है।
बंगला लिपि – इसमें बंगाल के राजा नारायणपाल और विजयसेन के समय प्रचलित लेखों और दानपत्रादियों से प्राप्त लिपि संकेतों के चित्रों को प्रस्तुत किया है।
मध्यप्रदेशी लिपि – इसमें वाकाटवंशी राजा प्रवरसेन के दानपत्रों से प्राप्त लिपि संकेतों को चित्रित किया है। इसी प्रकार से पुस्तक में तेलगु-कनड़ी लिपि, कलिंग लिप, ग्रन्थ लिपि, तमिल लिपि, वट्टेलुतु लिपि और प्राचीन अंकों की लिपियों के चित्रों को प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए अत्यन्त लाभदायक है।
आशा है कि इस पुस्तक के अध्ययन से पाठकगण अत्यन्त लाभान्वित होंगे एवं भाषा, लिपि के अध्येता विद्यार्थियों को इस पुस्तक के अध्ययन से अनेंकों अध्ययन सामग्रियों की प्राप्ति होगी।
नई सदी में ” भारतीय प्राचीन लिपिमाला”
यह उन सभी मित्रों के लिए अच्छी खबर हो सकती है जो इतिहास और विशेषकर लिपिशास्त्र में रुचि रखते हैं तथा अभिलेखों के पठन और तद् विषयक अभ्यास में निरंतर लगे रहते हैं। जॉर्ज ब्यूहर जैसे पाश्चात्यों द्वारा भारतीय लिपि को विदेशी मूल की बताने जैसे के प्रयासों के विरोध में जिस पहले भारतीय ने ताल ठोकी थी वे पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा थे। उन्होंने 1894 में ‘भारतीय लिपिमाला’ नाम से किताब लिखी और उसको जो ख्याति मिली तो 24 साल बाद, उसी को 1918 ई. में विस्तृत रुप दिया। नाम रखा – भारतीय प्राचीन लिपिमाला।
भारतीय लिपिशास्त्र के अध्येताओं के लिए यह ग्रंथ बहुत मानक माना गया और विगत सौ सालों में भारत ही नहीं, विदेशों में भी इस ग्रंथ की बड़ी मांग रही। हिंदी में होकर भी इसको भारतविद्या (इंडोलॉजी), पुरातत्व, इतिहास, पांडुलिपि संपादन विज्ञान, हिंदी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं के अध्येताओं ने एक मानक पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। हालांकि इसके बाद लिपि विज्ञान पर अनेक विद्वानों ने अलग-अलग नामों से इसी ग्रंथ को आधार बनाकर अपनी किताबें दी किंतु ओझाजी के इस ग्रन्थ को नवीकृत करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ।
पांच साल पहले राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर के संचालक श्री राजेंद्रजी सिंघवी ने इस ग्रंथ के पुनर्प्रकाशन की इच्छा रखी तो मैंने कहा कि गत सौ सालों में बहुत-सी बातें नई सामने आई है। अव्वल तो इस ग्रंथ के प्रकाशन के एक ही साल बाद, 1919 ई. में सिंधुघाटी, हड़प्पा की सभ्यता सामने आ गई है और उसमें मिली सीलों व मुहरों पर लिपि का प्रयोग किया गया है और यह भारतीय समाज में लिपि के व्यवहार को बहुत पुराना बताने के लिए पर्याप्त है। और, फिर अब तक भारत में सैकड़ों सभ्यता व सांस्कृतिक स्थलों पर उत्खनन हो चुका है, शैलाश्रयों की खोज भी सामने आई है, वैदिक आदि ग्रंथों की शब्दावली और उसके प्रयोग पर नवीन विद्वज्जन सम्मत कोशों के निर्माण सहित लिपि न्यास की अनेक मान्यताओं पर भी वैज्ञानिक विचार सामने आ गए हैं। सिंघवीजी ने एक चुनौती सी दी कि जिस पुस्तक से ओझाजी को सबसे ज्यादा सम्मान मिला, उसको आदिनांक किया जाए। मगर, यह बहुत जटिल और साहस का कार्य था। मैंने मूल पुस्तक और लिपियों से छेड़छाड़ किए बिना, जहां आवश्यक लगा, अपनी बात कहने का साहस किया और इससे कहीं ज्यादा, नवीनतम सूचनाओं पर आधारित बड़ा संपादकीय लिखने का श्रम किया। इसमें हडप्पा से लेकर सरस्वती सभ्यता आदि की मान्यताओं और उनकी लिपियों पर हुए अनेक शोध सम्मत कार्यों की सूचनाओं को करीब 50 पेज में सचित्र, सोदाहरण समेटने का प्रयास किया।
कुल मिलाकर यह ग्रंथ नवीन स्वरूप पा गया, मगर इस श्रम में लगभग चार बरस लगे। हाल ही इसका प्रकाशन हो गया है। आदरणीय सिंघवीजी को बधाई दूं या अपने उन मित्रों का आभार मानूं जिन्होंने मुझ हिंदी पाठक को इतिहास के इलाके का समझकर निरंतर प्रोत्साहन दिया। यह प्रकाशन उन सभी मित्रों को समर्पित है, जो फेसबुक पर जुड़े हैं और भारतीय ज्ञान विरासत के प्रचार-प्रचार सहित पुरातात्तिवक अभिलेखों के पठन-पाठन की ओर ध्यान आकर्षित करते रहते हैं। ब्राह्मी से लेकर देवनागरी और अन्य लगभग सभी लिपियों के अध्ययन, अनुसंधान के इच्छुकजनों के लिए यह ग्रंथ आदर्श और अनुपम सिद्ध होगा, यह नई सदी की आवश्यकताओं के अनुरूप लगे तो मेरी पीठ जरूर थपथपाइयेगा और दुआ दीजिएगा। सौ साल बाद, इसका पुनर्प्रकाशित स्वरूप जरूर रुचिकर लगेगा।
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