भूमिका
“ब्रह्मचर्य – दुःख निवारक दिव्य मणि” नामक इस पुस्तक का प्रारम्भ, स्वाभाविक ही है कि ईश्वर स्तुति ( गुणगान ), उपासना एवं प्रार्थना से होना चाहिए । अतः मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ
“ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव । यद्भद्रं तन्न आसुव॥
( यजु. ३० / ३ )
अर्थात् हे सर्वसमर्थ परमेश्वर ! हमारी समस्त बुराइयों को हमसे दूर कर दें और जो-जो अच्छाइयाँ हैं, वे हमें प्राप्त करा दें।
वेद भी कहता है कि सर्वप्रथम ईश्वर की सामर्थ्य से पृथ्वी पर अग्नि ऋषि के हृदय में ज्ञानकाण्ड से भरपूर ऋग्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए थे। ऋग्वेद का प्रथम ही मन्त्र है“अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥
अर्थात् जिज्ञासु कहता है कि मैं संसार की पुरियों का हित करने वाले, यज्ञ का ज्ञान देने वाले, संसार के पदार्थ एवं दिव्य गुणों को देने वाले प्रत्येक ऋतु में पूजा के योग्य और सब प्रकार से हम सबको धन-रत्न आदि पदार्थ देने वाले ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा करता हूँ । मन्त्र में अग्नि शब्द “अग अग्रिणि” धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है जो सत्ता सबसे पहले है अर्थात् सृष्टि से पहले स्वयंभू, जीता-जागता ईश्वर ही होता है। अग्नि का दूसरा अर्थ है – ‘अञ्चु गतिपूजनयोः’ अर्थात् जो सर्वप्रथम पूजनीय है। उस ईश्वर का नाम अग्नि है। अतः इस पुस्तक के प्रारम्भ में हम उस एक ईश्वर को बार-बार नमन करते हैं। वह हमें शक्ति दे कि जगत कल्याण के लिए उस कल्याणकारी ईश्वर की वाणी को ही प्रवचन / पुस्तक के रूप में प्रसारित करते रहें।
यह तथ्य सर्वविदित है कि सब जगत का स्वामी केवल एक ही ईश्वर है। श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/८ में कहा“न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ “
अर्थात् उस एक ईश्वर के न तो कोई समान है और न ही कोई उस एक ईश्वर से अधिक हो सकता है। अथर्ववेद काण्ड १३, सूक्त ४ के मन्त्र १६ – २९ का भाव है कि परमेश्वर एक ही है, उससे भिन्न दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा, छटा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ और दशमा कोई ईश्वर नहीं है।
Reviews
There are no reviews yet.