भारतीय संस्कृति के स्वरूप के संयोजन में पुराणों ने व्यावहारिक योगदान किया है। देववाद के विकास के साथ-साथ विकसित हुई गाथाओं और आख्यानों-उपाख्यानों से पाठक-हृदय के आह्लाद का अभिवर्थन करने की दिशा में पुराणों का अवदान सर्वाधिक है और इन पुराणों का विकास भी इसी का एक समानान्तर क्रम भी है, क्योंकि महापुराण, पुराण, उप और औपपुराण ही नहीं, स्थल पुराणों की निरन्तर विद्यमानता संस्कृति के विविध चरणों-सोपानों के साथ-साथ बौद्धिक स्तर पर धर्म-मत-सम्प्रदायों के परीक्षण और प्रसार का भी एक स्वरूप है। पुराण किसी भी धार्मिक आनुष्ठानिक विचार के लिए यदि आरम्भ है, तो उसके लिए प्रमाणभूत भी। दरअसल पुराणों का स्वरूप लोक का श्लोकान्तरण है और उनमें वैदिक, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् और स्मृतियों के अनेकानेक स्तम्भ आधार प्रदान करते द्रष्टव्य हैं। इसलिए पुराणों को प्रारम्भिक प्रमाण भी स्वोकारा गया है और इस रूप में उनका पञ्चलक्षणात्मक होना बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये राजकीय उपयोग के तो थे ही, जैसा कि चाणक्य संकेत देता है कि शासनकर्ता को नियमित रूप से इतिहास का श्रवण करना चाहिए, और यह इतिहास पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका, वीरोपाख्यानमूलक उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र से संयुक्त होगा- पूर्वमहर्भागं हस्त्यश्वरथप्रहरण विद्यासु विनयं गच्छेत्, पश्चिममितिहास श्रवणे। पुराणमितिवृत्तमाख्याविकोदाहरणं धर्मशास्त्रमर्थशास्त्रं चेतीतिहासः । (अर्थशास्त्र 1, 5) साथ ही इनका लोकोपयोग भी कम नहीं था। मनु, औशनस आदि ने इस व्यवस्था का प्रतिपादन किया है और नियमित पाठ की आवश्यकता बताई है। इसलिए, अनेक
पुराणों का प्रणयन हुआ और निरन्तर उनका विकास भी हुआ। महापुराणों में ब्रह्मपुराण का विशिष्ट महत्व रहा है और प्राचीन पुराणों में परिगणित विष्णुपुराण, मत्स्य एवं
बायुपुराण प्रभृति में पुराणों की जो सूचियाँ मिलती हैं, उनमें इस पुराण को कहीं प्रथम तो कहीं अन्य स्थान पर दिया गया है। विष्णु के विवरण से यह तो स्पष्ट है कि यह प्रथम या आद्यपुराण रहा है- चतुष्टयेनाप्येतेन संहितानामिदं मुने। आधं सर्वपुराणानां पुराणं ब्राह्ममुच्यते ॥ अष्टादश पुराणानि पुराणज्ञाः प्रचक्षते ॥ किन्तु वायुपुराण (104, 3) और देवीभागवतपुराण (1, 3, 3) ने पुराणों का क्रम मत्स्यपुराण से निर्धारित किया है और इसको पाँचवें क्रम पर रखा है। यह स्वीकार्य है कि ब्रह्मपुराण अपने स्वरूप में अमरकोश द्वारा निर्धारित पञ्चलक्षणात्मक कोटि का प्रतिनिधित्व करता है, किन्तु वह स्वयमेव पुराण और आख्यान दोनों ही संज्ञाएँ देता है और लोमहर्षण बचन से स्वयं को वैष्णव कोटि का पुराण कहता है- पुराणं वैष्णवं त्वेतत्सर्व किल्विषनाशनम्। विशिष्टं सर्वशास्त्रेभ्यः पुरुषार्थोपपादकम् ॥ (ब्रह्मपुराण 246, 20) इस प्रकार यह पुराण का अपना मत है जिसे वह स्वयं के अर्थ में देता है, यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे वायुप्रोक्त पुराण अपने को इतिहास के साथ ही पुराण भी सिद्ध करता है-
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