यह संहिता आठ स्थान एवं एक सौ बीस अध्यायों में विभक्त है । जिसमें पाँच स्थान, यथा-सूत्रस्थान, निदानस्थान, विमानस्थान, शारीरस्थान एवं इन्द्रियस्थान को ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध भाग में तथा शेष- चिकित्सा, कल्प एवं सिद्धि स्थान को ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध भाग में व्यवस्थापित किया गया है । इस प्रकार हिन्दी व्याख्याकारों ने अध्ययन की सुविधा एवं ग्रन्थ का कलेवर अतिविस्तृत न हो, इस विचार को दृष्टिगत रखते हुए, ऐसा किया है । भगवान् पुनर्वसु आत्रेय के उपदेशों का संकलन ही अग्निवेशतन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है । आचार्य चरक ने इस तन्त्र को प्रतिसंस्कारित कर ‘चरकसंहिता’ नाम दिया । कालान्तर में चरकसंहिता के कुछ अंश लुप्त हो गये जिसे आचार्य दृढ़बल ने शिलोञ्छवृत्ति द्वारा पूर्ण किया । दृढ़बल के समय में चरकसंहिता के कितने अंश उपलब्ध थे, इस विषय पर उनके ही विचार विचारणीय हैं, यथा
अस्मिन् सप्तदशाध्यायाः कल्पाः सिद्धय एव च । नासाद्यन्तेऽग्निवेशस्य तन्त्रे चरकसंस्कृते ।। तानेतान् कापिलबलिः शेषान् दृढ़बलोऽकरोत् । तन्त्रस्यास्य महार्थस्य पूरणार्थं यथातथम् ।। (च.चि. ३०/२८९-२९०)
चरक प्रतिसंस्कृत अग्निवेशतन्त्र में चिकित्सा के सत्रह अध्याय, कल्प व सिद्धि स्थान उपलब्ध नहीं थे । इस तन्त्र के महत्त्वपूर्ण उन शेष विषयों को उचित रूप में कापिलबलि के पुत्र पञ्चनदपुर निवासी दृढ़बल ने पूरा किया ।
2 7 अत: इतना तो स्पष्ट है कि कल्प व सिद्धि-स्थान को आचार्य दृढ़बल ने पूरा किया, जो उस काल में चरकसंहिता से लुप्त हो गया था । लेकिन चिकित्सा के किन सत्रह अध्यायों को आचार्य दृढ़बल ने पूरा किया है, इस पर मतभेद है । आचार्य चक्रपाणि के मत के अनुसार- “ते च चरकसंस्कृतान् यक्ष्मचिकित्सितान्तानष्टावध्यायान् तथाऽर्शातीसारविसर्पद्विवणीयमदात्ययोक्तान् विहाय ज्ञेयाः’ (च.चि.३०/ २८९-२९० पर चक्रपाणि [चरक संस्कृत शुरू के आठ अध्याय (प्रारम्भ से लेकर यक्ष्मा तक- रसायन, वाजीकरण, ज्वर, रक्तपित्त, गुल्म, प्रमेह, कुष्ठ, यक्ष्मा) तथा अर्श, अतीसार, विसर्प, द्विवणीय एवं मदात्यय को छोड़कर शेष सत्रह अध्याय दृढ़बल कृत हैं, समझना चाहिए।
निर्णय सागर प्रेस मुम्बई द्वारा प्रकाशित चरकसंहिता (चक्रपाणि टीका) के अध्यायान्त पुष्पिकाओं को देखने पर आचार्य चक्रपाणि के विचारों में संशय उत्पन्न होता है, क्योंकि द्विवणीय चिकित्सा की पुष्पिका में- “इत्यग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते दृढ़बलसंपूरिते चिकित्सास्थाने द्विव्रणीयचिकित्सितं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः” तथा विषचिकित्सा की पुष्पिका में- “अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते चिकित्सास्थाने विषचिकित्सितं नाम त्रयो विंशोऽध्यायः” प्राप्त होता है । इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि द्विवणीय चिकित्सा दृढ़बल संपूरित तथा विष चिकित्सा चरक प्रतिसंस्कृत है ।
रसायन प्रकरण में आचार्य चरक ने- “तस्यां संशोधनैः शुद्धः सुखी जातबलः पुनः । रसायनं प्रयुञ्जीत तत्प्रवक्ष्यामि शोधनम्” (च.चि.अ.१/१/२४) इति के द्वारा रसायन के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन किया है । आचार्य चरक द्वारा वर्णित रसायन क्रम अपना एक विशेष महत्त्व रखता है । इस रसायन विधि में विधिपूर्वक हरीतक्यादि चूर्ण के सेवन से ही शोधन के गुणों की प्राप्ति हो जाती है । अत: शोधन हेतु वमनादि कर्म का यहाँ प्रयोग नहीं किया गया है । 6
पाण्डुरोग चिकित्सा में वर्णित सूत्र- “तत्र पाण्ड्वामयी स्निग्धस्तीक्ष्णैरूर्वानुलोमकैः । संशोध्यो मृदुभिस्तिक्तैः कामली तु विरेचनैः” (च.चि. १६/४०) इति की व्याख्या में विद्वानों द्वारा “तीक्ष्णैरूर्वानुलोमकै” का गृहीत अर्थ तीक्ष्ण वमन व तीक्ष्ण विरेचन के प्रति विनम्र असहमति को प्रदर्शित करते हुए ऐसे द्रव्यों ग्रहण किया गया है जो ऊर्ध्व एवं अधोगत दोषों को अधोमार्ग से बाहर निकालते हैं, यथा- गोमूत्र भावित हरीतकी । इसी का प्रयोग प्राय: चिकित्सा में किया जाता है । 6
विष चिकित्सा में वर्णित सूत्र- “जङ्गमं स्यादधोभागमूर्ध्वभागं तु मूलजम्” (च.चि.२३/१७) इति, को बदलकर नरेन्द्रनाथ सेन गुप्त संपादित चरकपाठ- “जङ्गमं स्यादूर्ध्वभागमधोभागं तु मूलजम्’ को स्वीकार किया गया है; क्योंकि इस सूत्र की चक्रपाणि टीका के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष निकलता है । व्यवहार में भी जाङ्गम विषों की गति ऊर्ध्व ही होती है तथा अरिष्टाबन्धन का भी प्रयोग दंश स्थान से ऊपर किया जाता है।
इस भाग की रचना में चरक व दृढ़बल दोनों के ही विषय सम्मिलित हैं । चरककृत चिकित्सा के तेरह अध्याय को छोड़कर शेष सत्रह अध्यायों के साथ-साथ कल्प व सिद्धि स्थान का संपूरण आचार्य दृढ़बल द्वारा किया गया है । आचार्य दृढ़बल ने संपूरणकर्ता के दायित्व के साथ-साथ क्या सम्पूर्ण चरक संहिता का भी प्रतिसंस्कार किया था ? यह शंका उत्पन्न होती है । कोई भी रचनाकार किसी खण्डित अंश को पूर्ण करने का जब संकल्प लेता है, तब उसकी पूर्ति तभी संभव है जब वह उपलब्ध ग्रन्थ का पूर्णत: अवलोकन करे । इस कार्य को करते समय ग्रन्थ में विद्यमान त्रुटियों के परिमार्जन किये बिना वह कैसे रह सकता है, अर्थात् वह त्रुटियों को भी परिमार्जित करेगा । अत: यह एक व्यावहारिक पक्ष है कि दृढ़बल द्वारा चरकसंहिता के लुप्त अंशों के पूरण के साथ-साथ सम्पूर्ण ग्रन्थ का भी प्रतिसंस्कार किया गया होगा । यही कारण है कि बहुत से विषय या शब्द जो दृढ़बल कालीन हैं, चरकसंहिता के उन अंशों में भी उपलब्ध होते हैं जिसका संपूरण आचार्य दृढ़बल ने नहीं किया ।
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