आयुर्वेद के सुविज्ञ पाठकों के समक्ष चरक संहिता की हिन्दी टीका तथा आचार्य चक्रपाणि दत्त द्वारा व्याख्यायित चरक संहिता की ‘आयुर्वेद दीपिका’ टीका के हिन्दी अनुवाद को प्रस्तुत करते हुये हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। यद्यपि चरक संहिता की हिन्दी टीका तो अनेक आयुर्वेदविदों द्वारा की गई है, तथापि हमने इसे सरल बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करने का यथासंभव प्रयास किया है तथा किसी-किसी विशेष दुरूह विषयवस्तु को वक्तव्य रूप में प्रस्तुत कर उसे अत्यन्त सरल व सुबोध रूप में लिपिबद्ध करने का पूर्ण प्रयास किया है।
जहाँ तक आयुर्वेद दीपिका टीका के हिन्दी अनुवाद का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में मेरा यह अभिमत है कि यद्यपि कुछ विद्वानों ने आयुर्वेद दीपिका टीका का आग्लभाषा में अनुवाद किया है किन्तु वे अनुवाद प्रथमतः शब्दशः नहीं किये गये हैं एवं वे अनुवाद अनुवादकों के वक्तव्य रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। परिणामस्वरूप आयुर्वेद के जो जिज्ञासु आंग्लभाषा के कुशल ज्ञाता नहीं हैं उनके लिये वे अनुवाद सहज रूप से बोधगम्य नहीं हैं। आग्लभाषा में वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत किये गये अनुवाद में एक दूसरी त्रुटि यह भी है कि संस्कृत भाषा के शब्दों का यथावत् अनुवाद आंग्लभाषा में नहीं हो पाता, क्योंकि आयुर्वेद के पारिभाषिक शब्दों के समानार्थक शब्द आंग्लभाषा में नहीं प्राप्त होते। उपर्युक्त तथ्यों को दृष्टिगत करके हमने आयुर्वेद दीपिका टोका का हिन्दी अनुबाद आयुर्वेद के विद्यार्थियों के लिये आयुर्वेद गत दुरूह विषयों को समुचित रूप से सरल बोधगम्य भाषा के रूप में प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया है।
इस सन्दर्भ में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आयुर्वेद दीपिका टीका के हिन्दी अनुवाद का प्रयोजन ही क्या है? क्योंकि आयुर्वेद के अनेक ग्रन्थ हैं, जिनकी आयुर्वेद के आचार्यों ने संस्कृत भाषा में अनेक टीकायें रचित की हैं, उन सभी संस्कृत भाषा में व्याख्यायित टीकाओं का तो हिन्दी अनुवाद नहीं है, तो फिर इस आयुर्वेद दीपिका टीका का हिन्दी अनुवाद करने की क्या आवश्यकता हुई ? इस प्रकार का प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है। इस सम्बन्ध में यह कहना है कि प्रथमतः आयुर्वेद दीपिका टीका में आचार्य चक्रपाणिदत्त ने क्लिष्ट भावों तथा दुर्बोध्य शब्दों का सरल भाव व सरल अर्थ तो मुख्य रूप से प्रस्तुत किया ही है, इसके अतिरिक्त आयुर्वेद के अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत करते हुये आयुर्वेद के विषयवस्तु को कलेवरवृद्धि की है, जिससे जिज्ञासुओं को तद्गत विषय का विशद ज्ञान सहज रूप से बोधगम्य हो सके। मूल ग्रन्थ में जिस विषय का विचार विशद रूप से बोधगम्य नहीं हो पाया है उसे व्याख्याकार ने विस्तृत रूप से बोधगम्य रूप में दूसरे ग्रन्थों के उद्धरण देकर उसकी प्रामाणिकता प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
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