Vedrishi

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दिव्य औषधि विज्ञान

Divya Aushdhi Vigyan

1,200.00

SKU 37506-CS00-0H Category puneet.trehan
Subject : Divya Aushdhi Vigyan,, Ayurved, 
Edition : 2012
Publishing Year : 2012
SKU # : 37506-CS00-0H
ISBN : 9788189469443
Packing : Hardcover
Pages : 301
Dimensions : 18X24X2
Weight : NULL
Binding : Hard cover
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इस संसार में जितने प्राणी, जीव जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़ पौधे, कीट पतंग हैं उन्हें स्वस्थ रहने का जन्मसिद्ध अधिकार ईश्वर ने प्रदान किया है। मानवों को भी स्वस्थ और नीरोग रहने का जन्मसिद्ध अधिकार हमें प्रकृति ने प्रदान किया है। यह निर्विवाद है परन्तु और जीवों की अपेक्षा मनुष्य अपना यह अमूल्य अधिकार धीरे-धीरे खोता जा रहा है। इसके लिए वह खुद ही जिम्मेवार है इसमें कोई संशय नहीं है।

 

मानव को भी प्रकृति ने ही बनाया है जैसे अन्य जीवों को परन्तु आज जीने के लिए मानव अप्राकृतिक तरीके अपना रहा है। उसका आहार-विहार, उसकी मानसिकता दूषित हो गयी है। यह अत्यन्त ही दुःख और सोचनीय बात है।

 

मनुष्य अपने क्षणिक सुख-सुविधा के लिए जितना ही प्रकृति से अलग होता जा रहा है, उतना ही वह रोगी और दुःखी होता रहा है।

यह एक आम कहावत है कि विश्व में जितने प्राणी हैं उतने रोग हैं। इधर कुछ विगत वर्षों से अनेक बीमारियों की रोकथाम के लिए संसार में प्रयास हुए और हो रहे हैं परन्तु असलियत यह है कि रोगी और रोगों की संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि हो रही है।

इसमें कोई संशय नहीं है कि वर्तमान युग में वैज्ञानिकों को काफी सफलता मिली है और दिन-प्रतिदिन प्रगति हो रही है जिनके कारण चिकित्सा क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई है परन्तु अनेक रोगों का अभी तक पूरा और संतोषजनक उपचार नहीं मिला है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि रोग का कारण और पहचान ठीक-ठीक पता चलने के बाद भी अनेक औषधियाँ प्रभावी नहीं होती जिसके कारण रोगी की अवस्था में सुधार की बात तो दूर, उसकी अवस्था दिन-प्रतिदिन खराब होती जाती है। इसके अलावा कुछ औषधियाँ इतनी महँगी होती हैं कि गरीब, दुःखी और असहायों की तो बात दूर बड़े-बड़े अच्छे धनवान् भी नहीं खरीद पाते। ऐसी अवस्था में यह सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि क्या सस्ती, सुलभ और प्राकृतिक औषधियों के द्वारा चिकित्सा की ऐसी पद्धति या उपाय नहीं किया जा सकता जिससे सभी लोगों का इलाज सहजता के साथ किया जा सके।

आयुर्वेद उसमें भी खास कर जड़ी-बूटियों का ज्ञान और उसकी उपयोगिता एक ऐसी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति है जिससे उपर्युक्त सभी समस्याओं का आसानी से समाधान हो सकता है। –

आयुर्वेद एक ऐसी महान पद्धति है जिसका सेवन करने से बिना औषधि के केवल अपना आहार-विहार, संयम और दिनचार्य को ठीक करके अनेक रोगों का स्वयं इलाज किया जा सकता है।

यह निर्विविवाद है कि रोगों को दूर करने की प्राकृतिक शक्ति शरीर में सदैव वर्तमान रहती है। जड़ी-बूटियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्हें पाने में थोड़ी-बहुत परेशानी है परन्तु इनका प्रभाव और रोग -निरोधक शक्ति चमत्कारिक होती है। वर्षों का रोग कुछ दिनों में ही दूर किया जा सकता है।

जब से सृष्टि का आविर्भाव हुआ है तभी से आयुर्वेद विद्यमान है। प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य चरक ने समग्र ऐश्वर्य, समग्र ज्ञान और समस्त वैराग्यादि षड्विध ऐश्वर्य सम्पन्न पुरुष की गणना उच्च कोटि में की है। योगियों में अणिमादि अष्टविद्ध ऐश्वर्य स्वाभाविक रूप से रहते ही हैं। व्युत्यत्ति लभ्य अर्थ के अनुसार शल्य शास्त्र के समग्र ज्ञाता आद्यन्त पारंगत विद्वान् भगवान धन्वन्तरि के द्वारा आयुर्वेद की उत्पत्ति मानी गई है।
अमृत प्राप्ति के लिए देवासुर ने जब समुद्र मंथन किया तब उसमें से दिव्य कान्ति अलंकारों से सुसज्जित सर्वांग सुंदर तेजस्वी, हाथ में अमृत पूर्ण कलश लिए हुए एक अलौकिक पुरुष प्रकट हुए। ये ही आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता भगवान धन्वन्तरि नाम से विख्यात हुए। उनका इस पृथिवी पर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को आविर्भाव हुआ था।
भगवान् धन्वन्तरि ने ही देवताओं को नीरोग रखने के लिए ऋषिवर विश्वामित्र के सुपुत्र सुश्रुत को आयुर्वेद का उपदेश दिया। भगवान धन्वन्तरि ने साक्षात् भगवान विष्णु के दर्शन किए।
इसके बाद भगवान् विष्णु ने कहा तुम जल से उत्पन्न हो इसलिए तुम्हारा नाम अब्ज होगा।
जब अब्ज ने भगवान विष्णु से संसार में स्थान और यज्ञ भाग की याचना की तो प्रभु विष्णु ने कहा तुम्हारा आविर्भाव देवताओं के बाद हुआ है। देवताओं के निमित्त महर्षियों ने यज्ञ आहुतियों का विधान किया है, अतएव तुम यज्ञभाग के अधिकारी नहीं हो सकते हो परन्तु अगले जन्म में मातृ स्वतः गर्भ से ही तुम्हें अणिमादि सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाएँगी और तुम देवत्व प्राप्त कर लोगो। तुम पृथिवी पर सर्वश्रेष्ठ काशी राज के वंश में उत्पन्न होकर अष्टांग आयुर्वेद शास्त्र का प्रचार करोगे। इतना कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गए।
इसके बाद भगवान् धन्वन्तरि इन्द्र के अनुरोध पर देवताओं के चिकित्सक के रूप में अमरावती में रहने लगे। विष्णु भगवान् के पूर्व वचनानुसार अगले जन्म में काशी राज दिवोदास धन्वन्तरि हुए और उन्होंने ही लोक कल्याणार्थ धन्वन्तरि संहिता की रचना की।
इससे स्पष्ट होता है कि पृथिवी के साथ-साथ ही जड़ी-बूटियों और आयुर्वेद का आर्विभाव हुआ।
प्रकृति ने मानव को अनेक वरदान दिए हैं। उनमें जड़ी-बूटियों का स्थान है। आदि काल में हमारे परम पूज्य ऋषि-मुनि इन्हीं जड़ी-बूटियों के द्वारा अनेकों प्रकार के रोगों की चिकित्सा किया करते थे। असंख्य असाध्य बीमारीियों का इलाज आज भी सम्भव नहीं है परन्तु उनका भी इलाज सफलतापूर्वक जड़ी-बूटियों के द्वारा ही किया जाता था। रामायण काल की संजीवनी बूटी का नाम भला कौन नहीं जानता है। जड़ी-बूटियों द्वारा इलाज हमारे प्राचीन कालीन परम पूज्य ऋषि-मुनियों की देन है।
महर्षि चरक और सुश्रुत के महा ग्रन्थ इसके साक्षात् प्रमाण हैं। उन महा ग्रन्थों में जड़ी-बूटियों द्वाना नाना प्रकार के रोगों की चिकित्सा का विशद विवरण है।
खेद और दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि कालान्तर में धीरे-धीरे इन जड़ी-बूटियों की महत्ता हमारी असावधानी और अदूरदर्शिता के कारण कम होती जा रही है और कारखानों में तैयार विदेशी औषधियों का साम्राज्य सर्वत्र छाता जा रहा है। प्राचीन काल में वैद्यों की जो प्रतिष्ठा थी वह आज के अंग्रेजी डॉक्टरों के द्वारा क्षीण हो गयी।

आज आवश्यकता इस बात कि है कि आयुर्वेदज्ञों के महत्त्व को समझा जाए और उनसे चिकित्सा कराकर जन स्वास्थ्य सुरक्षित रखा जाए। यह खुशी की बात है कि लोगों का ध्यान अब धीरे-धीरे आयुर्वेद की तरफ आकर्षित हो रहा है और लोग इसकी खोई हुई गरिमा को समझने लगे हैं। प्रकृति प्रदत्त इन जड़ी-बूटियों का उपयोग कर हम सदा स्वस्थ और बलवान रह सकते हैं।

वैसे तो इस महान् देश भारतवर्ष में आयुर्विज्ञान का इतिहास अत्यन्त ही पुराना है। जड़ी-बूटियों का औषधि रूप में उपयोग किए जाने का प्राचीनतम विवरण ऋग्वेद में मिलता है जो अत्यन्त प्राचीन है। यह मानव ज्ञान का प्राचीनतम संग्रहागार है। यह सर्व विदित है यह दिव्य ग्रन्थ ई. पूर्व 4500 से 1600 वर्ष पूर्व लिखा गया था। इस महा ग्रन्थ में सोम बूटी का उपयोग और उसका प्रभाव मानव शरीर पर क्या होता है इसका विवरण विशद रूप में किया गया है।

अथर्ववेद जो ऋग्वेद के बाद में लिखा गया है उसमें वनस्पतियों के उपयोग की अनेक विधियों का विशद वर्णन मिलता है। भेषजों के सुनिश्चित गुणों एवम् उपयोगों का उल्लेख अधिक विस्तार के साथ आयुर्वेद में मिलता है जिसे उपवेद माना जाता है। वास्तव में आयुर्वेद भारत के प्राचीन चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला है।

भारत में अनेक विदेशी आए और अपने साथ चिकित्सा पद्धति भी लाए परन्तु मुगलों तक वे पद्धतियाँ भारतीय पद्धति में समाहित हो गईं लेकिन जब अंग्रेज भारत आए तो धीरे-धीरे भारतीय पद्धति का ह्रास शुरू हुआ और इसमें कुछ भारतीय लोगों के स्वार्थ का भी योगदान महत्त्वपूर्ण रहा। –

आयुर्वेद में पारंगत ऋषि-मुनियों का अनुसन्धान का तरीका भी अपूर्व और अजीव था जिन्होंने एवरेस्ट की बर्फीली चोटियों से लेकर समुद्र की अथाह गहराइयों में जाकर वनस्पतियों और रत्नों का आविष्कार किया और उनका प्रयोग अपने शरीर पर स्वयं कर उनके प्रभावों को जन मानस के कल्याणार्थ लिपिबद्ध किया।

– मैं उन तमाम परम पूज्य ऋषि-मुनियों, साधु-सन्तों, वैद्यों, अपने साथियों, किसानों और घरेलू दवा परस्त और जड़ीबूटियों के दूकान दारों का सदा ऋणी रहूँगा जिनकी कृपा और सहयोग से इस किताब को जन कल्याणार्थ लिखा गया है। मैं उन सभी वैद्यराजों, लेखकों एवं प्रकाशकों का भी सदा ऋणी रहूँगा जिनका इस पुस्तक में किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग द्वारा यह पुस्तक प्रकाशित की गई है।

मैं अपनी परम पूज्या माता स्वर्गीय श्रीमती तपेश्वरी देवी जी और पिता स्वर्गीय श्री बच्चालाल चौधरी जी के चरणकमलों में इसे सादर समर्पित करता हूँ जिनकी प्रेरणा से मुझे दीन हीन, दु:खी और रोगी व्यक्तियों की सेवा तथा सहायता करने का मौका मिला।

अन्त में परम आदरणीय प्रकाशक श्री अजय गुप्त जी का भी मैं सदा ऋणी रहूँगा जिन्होंने इस पुस्तक को मानव और लोक हित में प्रकाशित किया। इसके साथ ही मैं उन सभी महानुभावों का भी सदैव आभारी रहूँगा जिनके सहयोग से यह पुस्तक जन और लोक कल्याणार्थ लिखने में मदद मिली है।

कहते हैं कि कोई भी पुरुष किसी कार्य में तब तक सफल नहीं होता जब तक नारी की सहायता न प्राप्त हो इसलिए मैं अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सविता चौधरी का भी आभारी हूँ जिनके अथक परिश्रम और सहयोग से यह पुस्तक लिखी गयी है।

Weight 755 g

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