आज विश्व में सर्वत्र अशान्ति एवं दुःख बढ़ते जा रहे हैं। मनुष्य के हृदय से पवित्र प्रेम मरता जा रहा है, उसके स्थान पर घोर स्वार्थ भरता जा रहा है। मनुष्य को किसी पर विश्वास नहीं रहा। प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे का सब-कुछ छीनकर सुखी होना चाहता है। नित्य नये वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं। भौतिक चकाचौंध बढ़ रही है। अधिक धनवान तथा अधिक शिक्षित होने पर भी नर-नारी और अधिक भोग-विलास में ही डूबते जा रहे हैं। वे धन और भोग-विलास के लिए दिन-रात दौड़ रहे हैं, परन्तु शान्ति का कहीं नाम नहीं है। अनेक नर-नारी स्वतन्त्रता का नाम लेकर दुराचारी बन रहे हैं। माता-पिता सन्तान से तथा सन्तान मातापिता से मुख मोड़ रहे हैं। भाई-भाई से बोलना नहीं चाहता। इच्छाएँ इतनी बढ़ गई हैं कि मनुष्य उनकी पूर्ति करता-करता पागल हो गया है। नारी पर घर-बाहर सर्वत्र अत्याचार हो रहे हैं। आज उसका पूजा का स्थान समाप्त हो गया और वह केवल भोग-विलास का खिलौना बनकर रह गई है। नगरों में वेश्याओं से बाजार भरे पड़े हैं और युवक-युवतियाँ पाश्चात्य असभ्यता की अग्नि में जलकर नष्ट हो रहे हैं। मानव-जीवन से सादगी समाप्त हो चुकी है। सर्वत्र ही चोरी-डकैती, लूटमार का आतङ्क छाया हुआ है। मांसाहार, मदिरापान और वेश्यावृत्ति-ये महापाप निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं। विना घूस दिए कुछ काम नहीं होता। अपने कर्तव्य का कोई पालन नहीं करता, वरन् सब स्वार्थ-साधने में लगे हुए हैं। समाज में बढ़ते दुःख की ओर किसी का ध्यान नहीं है। ईश्वर का नाम लेने के लिये किसी के पास १० मिनट का भी समय नहीं है। अश्लील तथा घटिया साहित्य मँहगा होने पर भी छपते ही बिक जाता है, परन्तु धार्मिक साहित्य खरीदने के लिए धनवान के पास भी धन नहीं है। अपनी भाषा, अपनी वेशभूषा तथा अपने धर्म से भारतीयों – को प्रेम नहीं रहा, परन्तु विदेशी भाषा, विदेशी वेषभूषा, विदेशी सभ्यता तथा विदेशी मत उनके गले के हार बन गए हैं। हमने विश्व की सर्वश्रेष्ठ वैदिक संस्कृति को भुला दिया और विदेशी असभ्यता के दास बन गए। जीवन से सदाचार की पवित्रता को मिटाकर दुराचार की अशुद्धि को जमा लिया है। सर्वत्र अन्याय, । अत्याचार और हिंसा की अग्नि लगी हुई है।
वर्तमान मानव-समाज की यह वास्तविक दशा है। इस दुःखद स्थिति का मूल कारण है-मानवता का वेदमार्ग से हटकर अन्य मार्गों पर चलना। वेदमार्ग तो मनुष्य को परोपकार तथा ईश्वर की ओर ले जाता है, परन्तु वेद से भिन्न मार्ग ऊपर से सुखद दिखाई देनेवाले-काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, स्वार्थान्धता, यौन-सुख, और शारीरिक दासता की ओर ले जाते हैं। वास्तव में ये ऐसे दुर्गुण हैं, जिन्होंने मनुष्यों को पशुओं से भी गिरा हुआ बना दिया है। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि हम इन दुर्गुणों, दुराचारों और दुःखों की अग्नि से कैसे निकलें, कैसे बचें या संसार में फैली यह दुःखद स्थिति कैसे समाप्त हो?
इसका सरलतम और सर्वोत्तम उपाय केवल यह है कि प्रत्येक नर-नारी पूर्ण पवित्र हो जाए। पूर्ण पवित्र केवल वही हो सकता है, जो ईश्वर का सच्चा उपासक हो। ऐसा होने पर कोई भी नर या नारी दुराचारी नहीं हो सकता; उपर्युक्त दुर्गुण उसके पास नहीं फटक सकते और वह किसी भी जीव को शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कष्ट नहीं दे सकता। जब सब या अधिकांश नर-नारी ऐसे पवित्र या धार्मिक विचारों व जीवनवाले हो जाएंगे, तो सर्वत्र सुख का ही साम्राज्य होगा l
प्रस्तुत पुस्तक को मैंने केवल इसीलिये लिखा है कि इसे पढ़कर अधिक-से-अधिक नर-नारी ईश्वर के सच्चे उपासक बनें, अन्धविश्वास से बचें, तथा अपने जीवन को पवित्र व सरल बनाएँ। ऐसा करके ही हम अपने जीवन के मुख्य उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं।
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