ईद का हिन्दी पर्याय त्यौहार । ईद अथवा त्यौहार वह विशेष दिन है जो किसी महत्त्वपूर्ण कार्य अथवा धार्मिक आस्थाओं के कारण वर्ष के शेष दिनों से विशिष्टता रखता है । इस दिन कुछ विशेष रीतिरिवाज किये जाते हैं ।
मुसलमान लोग वर्ष में दो ईद मनाते हैं ।
एक ईद है ईद-उल फ़ितर जो रमज़ान के महीना के पश्चात आती है । मुसलमान रमज़ान के महिना को पवित्र मास मानते हैं । इस मास प्रतिदिन रोज़ा ( उपवास ) रखा जाता है । जल का एक बिन्दु भी मुंह में नहीं डालते । सायंकाल नमाज़ से पूर्व रोज़ा खोला जाता है । रात्रि खाना खाते हैं । यह क्रम पूरा मास चलता है । खाना पीना जो जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक वस्तुएं हैं उनको धार्मिक भावनाओं के आधार पर कुछ समय के लिए तज देना आत्मोन्नति के लिए बहुत लाभप्रद है । इससे प्रकट होता है कि हमारे आत्मा ने हमारे शरीर पर कुछ समय के लिए विजय प्राप्त कर ली है । इस प्रकार ये रोज़े संयम का एक विशेष साधन है । अन्य मतों में भी ऐसे व्रत , त्यौहार , उपवास पाए जाते हैं । हिन्दुओं में वर्ष भर में कई त्यौहार हैं जो केवल एक दिन के लिए हैं और जिन में से किसी में एक समय भोजन करते हैं , किसी में कतई नहीं करते । हिन्दुओं में एक और त्यौहार था — चांद्रायण व्रत — यह चालीस दिन का व्रत है और व्रत रखने वाला दोपहर को मात्र एक ग्रास ग्रहण करता है परन्तु यह व्रत कभी कभार ही रखा जाता है । रमज़ान के रोज़ों की विशेषता यह है कि मुसलमानों की बहुत बड़ी संख्या इनको रखती है । मुस्लिम देशों में रोज़ा के दिनों में बाज़ारों में भोजन नहीं मिल सकता ।
दूसरी ईद — ईद उज़हा , यह दस ज़ी उलहजा ( अरबी महीना ) को होती है । इस दिन ईद उल फ़ितर की भांति मुसलमान नहा धोकर अच्छे कपड़े पहनकर बहुत शान से सोत्साह ईदगाह को जाते हैं और नमाज़ के पश्चात लौटकर बकरे की कुर्बानी देते हैं । ईद उल फ़ितर के दिन मुसलमान लोग कुछ मीठी वस्तु खाकर नमाज़ के लिए ईदगाह जाते हैं परन्तु बकरीद में ईदगाह से लौटकर कुर्बानी ( बलि ) के मांस से इफ़तार करते हैं । यही कारण है कि ईद उज़हा की नमाज़ ईद उल फ़ितर की नमाज़ से सवेरे पढ़ी जाती है । बलि बकरे की भी होती है और गाय , भेड़ , दुम्बे , भैंसे तथा ऊंट की भी । मुसलमान लोग इस कुर्बानी के मांस को तीन भागों में बांटते हैं । एक भाग निर्धनों , अकिञ्चन लोगों व् दीन असहाय जनों में वितरित कर देते हैं । दूसरा भाग अपने सगे सम्बन्धियों में तथा तीसरा भाग अपने परिवार , अपने बाल-बच्चों के लिए रख लेते हैं ।
ईद उज़हा का आरम्भ कैसे हुआ ? उसके लिए इस्लाम में एक पुरानी गाथा है कि हज़रात इब्राहीम को जिनकी गिनती नबियों में की जाती है , आज्ञा दी गयी कि ऐसी वस्तु खुदा की राह में कुर्बान करो जो तुम्हारे निकट सबसे प्यारी हो । इस प्रकार उन्होंने अपने पुत्र इस्माईल को कुर्बान करना चाहा । उस समय एक चमत्कार घटित हुआ । इस्माईल तो बच गए परन्तु उनके स्थान पर एक दुम्बा कट गया । इस रीति की स्मृति में बकर ईद का त्यौहार मनाया जाता है । इन दोनों ईदों में नफ़स कुशी ( वासना पर नियन्त्रण ) की भावना है परन्तु एक अन्तर के साथ । रोज़ा ( उपवास ) रखने वाला अपने मन को ( नफ़स ) मार कर स्वयं कष्ट उठाता है , ईद उज़हा में दूसरे का वध किया जाता है भले ही वह प्रिय ही हो । अपने प्रिय को मारने की बजाय स्वयं को मारना अधिक कठिन है । प्यारा होता तो प्यारा है तथापि अपने से तो पृथक होता है अतः ईद उज़हा से वह नफ़स कुशी ( स्वयं को मरना – कष्ट देना ) प्रकट नहीं होता । आजकल के रिवाज में तो यह अन्तर और भी स्पष्ट है । रमज़ान में तो आप दिन भर भूखे रहते हैं कष्ट सहते हैं । बकर ईद में केवल रूपये का व्यय करते हैं अतः केवल मात्र रुपया कर देना कोई नफ़सकुशी ( तप – कष्ट सहन ) नहीं ।
क्या इससे पूर्व पशु-बलि थी ?
हजरत इब्राहीम की गाथा से यह प्रकट होता है कि बकर ईद की रीति हज़रत इब्राहीम से पहले नहीं थी । उनसे पूर्व पशुओं की बलि दी जाती थी अथवा नहीं यह दूसरी बात है । प्रश्न यह भी है कि क्या हज़रत इब्राहीम ने इस पहली घटना के पश्चात जब वह इस्माईल का वध करना चाहते थे और वह चमत्कार से बच गए वह रीति चला दी थी कि ईद उज़हा को मनाया जाए । हज़रत इब्राहीम से पहले अधिकाँश लोग मूर्तिपूजक थे । हज़रत इब्राहीम के पिता आज़र स्वयं मूर्तिपूजक थे । ये मूर्तिपूजक विभिन्न देवी देवताओं पर विश्वास रखते थे जैसे कि भारतीय मूर्तिपूजक रखते हैं । ये देवी देवता मनुष्य के समान खाते , पीते , विवाह रचाते तथा मनुष्यों से भेंट चढ़ावा चाहते हैं । कोई कोई देवी देवता रक्त पिपासु भी होते हैं जिन पर बकरे आदि काटे जाते हैं और मांस , मांसाहारियों को दे दिया जाता है अथवा कुछ भाग स्वयं भी प्रयोग में लाया जाता है ।
कलकत्ता की काली माई , विन्ध्याचल की देवी और भारत के अन्य स्थानों पर कई प्रकार की देवियाँ इस प्रकार की बलि चाहती हैं । नेपाल में भैंसे की बलि दी जाती है । मुझे आश्चर्य होता है कि हज़रत इब्राहीम ने मूर्तिपूजा तो छोड़ दी और एक ईश्वर पर विश्वास लाये तो वहाँ बलि की क्या आवश्यकता रहती है ? परमात्मा तो खाता पीता नहीं । न उसकी दूसरे देवी देवताओं जैसी रूचि ( taste ) है । फिर कुर्बानी क्यों की जाती है ? यह ठीक है कि प्राचीन यहूदी लोग और अन्य जातियां बलि दिया करती थीं परन्तु मुसलमानों को तो सोचना चाहिए कि इस्लाम का आगमन बातिल परस्ती ( झूठ के निराकरण ) के लिए हुआ न कि असत्य के प्रचलित रहने के लिए । मुसलमानों का दावा है कि हम एकेश्वरवादी हैं । " आया सच और भागा झूठ " , परन्तु बकर ईद तो झूठ के भागने की उक्ति को पूरा नहीं करती प्रत्युत बातिल परस्ती ( असत्य-पूजा ) को बल प्रदान करती है । प्रथम तो हज़रत इब्राहीम की गाथा यह प्रकट करती है कि हज़रत इब्राहीम को मात्र स्वप्न आया था और उन्हें प्रियतम वस्तु खुदा की राह में निछावर करने की प्रेरणा दी गयी थी । परमात्मा के पथ पर किसी प्रिय वस्तु को अर्पित करने का क्या अर्थ है ? खुदा की राह में वध करना तो नहीं है । । यह तो किसी देवता की राह है जो अपने लिए मांस चाहता है । खुदा की राह तो यह है कि जन जन को लाभ पहुंचाया जाए । प्रजा को सुख पहुंचाया जाए । ऐसे कार्य में यदि अपनी हानि भी होती हो तो उसको कुर्बानी कहेंगे ।
कुर्ब जिससे हो खुदा का वही कुर्बानी है ।
कुशतने नफ़स हो खूं 'रेज़ी – ए' हैवां न हो ॥
( जिससे प्रभु के समीप हों , वही समर्पण है । वासना को मारिये , पशुओं की हत्या न करो ॥ )
मुसलमान लोगों को विचारना चाहिये । यही सच्ची शरीयते इब्राहीमी ( इब्राहीमी मर्यादा-पथ ) होगी । यदि कोई मुसलमान परमेश्वर के पथ पर अपने प्रियतम पुत्र की बलि दे और खुदा उस पुत्र के स्थान पर कोई मेंढा रख दे तो इब्राहीमी गाथा का उदाहरण होगा परन्तु ऐसा तो नहीं होता । कोई अपने नफ़स ( वासना ) को कुर्बान नहीं करता । कोई जन-कल्याण की बात नहीं सोचता । केवल लकीर के फ़क़ीर बनकर ( अन्धानुकरण ) बकरों , गायों , मेढ़ों की बलि दी जाती है । यह न तो कुर्बानी है और न इब्राहीमी सन्मार्ग-मर्यादा है । यह तो रक्तपात है ।
फिर नमाज़ , हज , दान किस लिये ?
कहा जाता है कि बलि चढ़ाये गए प्राणी के लहू की एक-एक बूँद लोगों को बहिश्त ( heaven ) में पहुंचा देती है । यदि बहिश्त इतनी सस्ती है कि वध की गई गाय के लहू के एक कण से कोई स्वर्ग पा सके तो इस्लामी मत के इतने कर्तव्य कर्म सुनन ( पैग़म्बर की परम्परा – आचरण ) रोज़ा , नमाज़ , ज़कात ( दान ) हज , हदीस व् कुरान पर आचरण ये सब निरर्थक हो जायेंगे । पशुओं के रक्तपात से मनुष्य की कितनी हानि होती है इसका लेखा जोखा करने से ही पता चल सकता है । जो गौएँ व् बकरियाँ दूध की नदियाँ बहाती हैं और वही व्यवहार करती हैं जो हमारी माताएं हमारे साथ करती हैं उनकी इस प्रकार हत्या करना परमेश्वर की समीपता पाने का साधन नहीं बन सकता । और न ही इसको कुर्बानी कह सकते हैं । यदि ईद मनानी है तो मनाने वालों को चाहिये कि आज के दिन यह व्रत लें कि जन-कल्याण के लिये वे क्या-क्या कुर्बानी करने को उद्यत हैं । निर्धनों को दान दें परन्तु पशुओं को मारकर नहीं , अपने खाने में से बचाकर ।
पहले लहू बनता है फिर मांस बनता है —
इस्लाम में रक्त निषिद्ध ( हराम ) है , मैं तो इसका यह अर्थ समझता हूँ कि रक्तपात-हिंसा वर्जित ( हराम ) है । दूसरों को अकारण कष्ट देना वर्जित है , पाप है । कुछ मुसलमान लोगों ने समझ रखा है कि लहू का प्रयोग वर्जित है , रक्तपात वर्जित ( हराम ) नहीं है । वे मांस को लहू से स्वच्छ करके पकाते हैं और प्राणी का वध करते हुए अल्लाह का नाम लेते हैं । ये दोनों बातें स्वयं को धोखा देने जैसी हैं । पहले रक्त बनता है फिर मांस । इसलिए मांस के हर टुकड़े में रक्त तो सम्मिलित है ही । वास्तव में जब लहू को वर्जित घोषित किया गया होगा तो उसका यही भाव रहा होगा कि कोई किसी को दुःख न दे । इसका यह अर्थ नहीं है कि पीड़ा तो दो परन्तु रक्त न निकले ।
इसी प्रकार किसी हराम ( वर्जित ) कर्म के साथ भगवान् का नाम लेना पाप को घटाता नहीं । चोरी करने वाला यदि चोरी करते समय परमेश्वर का नाम लेकर चोरी करे तो उसकी बुराई घट नहीं जायेगी ! परमेश्वर के नाम का निरादर अवश्य होगा । एक सच्चे उपासक को चाहिये कि सर्व प्रकार के खोटे कर्मों से बचे तथा दुष्कर्मों के लिए परमात्मा के नाम की आड़ न ले । परमात्मा तो पवित्र है । उसका नाम भी पवित्र है । प्रभु का नाम शुभ कर्मों के साथ ही लेना चाहिये । ईद पर जो रक्तपात होता है वह परमेश्वर की आज्ञा का पालन नहीं प्रत्युत उल्लंघन है ।
इस्लाम में बहुत सी मिथ्या बातें ( बातिल परस्तियाँ ) सम्मिलित हो गयी हैं । इस्लामी विद्वानों का कर्तव्य है कि वे विचार करें और सामान्य मुसलमानों को अज्ञान के गढ़े से निकाले ।
(यह लेख पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी का है जो उर्दू में सन १९६७ में छपा था)
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