पुस्तक का नाम – जाति – निर्णय
लेखक का नाम – पण्डित शिवशङ्कर ‘काव्यतीर्थ’
वर्तमान समाज में वर्ण व्यवस्था को लेकर अनेकों लोग असमंजस्य में है। कई लोग वर्ण व्यवस्था को जन्म से मानते है तो वहीं आर्य समाज वर्ण व्यवस्था को गुण-कर्म से मानता है। जन्मानुसार वर्ण व्यवस्था में जिसका जिस घर में जन्म होता है उसका वही वर्ण हो जाता है। जैसे कि ब्राह्मण के घर उत्पन्न बालक चाहे वो अनपढ़ ही क्यों न हो, ब्राह्मण ही होता है। इसी तरह से किसी चर्मकार, कुम्भकार आदि के घर में जन्म लेने वाला चाहे कितना ही पढ़ लिख ले, उसका वही वर्ण होगा। किन्तु कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति का वर्ण उसके गुण-कर्म-स्वभाव अनुसार निर्धारित होता है। अतः समस्या यह होती है कि वर्ण किस अनुसार मानें और वर्ण व्यवस्था का शास्त्रों में सर्वमान्य सिद्धान्त क्या है? इसी विषय पर प्रस्तुत पुस्तक में लेखन किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में वर्ण व्यवस्था को गुण-कर्म और योग्यता के आधार पर निर्धारित होना माना गया है। इस सम्बन्ध में अनेकों शास्त्रोक्त प्रमाण और युक्तियों को रखा गया है। जिस तरह आज डॉक्टर का बेटा बिना जीव-विज्ञान पढ़े डॉक्टर नहीं बन सकता है उसी तरह पूर्वकाल में भी ब्राह्मणादि वर्ण ज्ञानकर्मानुसार होता था इस विषय को पुस्तक में अच्छे प्रकार से समझाया गया है। पुस्तक में शास्त्रीय समाधान को प्रमुखता देते हुए विविध मान्य ग्रन्थों जैसे – वेद, महाभारत, रामायण, शतपथादि ब्राह्मणग्रन्थ, लाट्यायनादि श्रौतसूत्र, आपस्तम्बादि गृह्यसूत्र, छान्दोग्यादि उपनिषदों, वेदान्तादि षड्शास्त्रों और व्याकरणादि अङ्गों, मनुस्मृति, बृहद्देवतादि ग्रन्थों के साथ-साथ पुराणादि के भी प्रमाण प्रस्तुत किये गये है।
पुस्तक में वर्ण-व्यवस्था से सम्बन्धित जितने भी गूढ़ प्रश्न हो सकते है, इसमें किये गये हैं और उनके समाधान भी सप्रमाण सयुक्ति से दिये हैं। इस पुस्तक का संक्षिप्त विषय निम्न प्रकार है –
1 प्रथम प्रकरण में 7 प्रश्न प्रस्तुत कर आर्य-दस्यु-दासादि शब्दों की मीमांसा की गई है।
शूद्र शब्द का अर्थ और धीरे-धीरे अवनति को सिद्ध किया है। मनुष्य में एक जाति मनुष्यमात्र है इसको सांख्यशास्त्र, रामायण, महाभारत और भागवत आदि के प्रमाणों से सिद्ध किया गया है।
2 द्वितीय प्रकरण में वेदों और शास्त्रों में वर्णित विविध व्यवसायिंयों और कला-कौशल का वर्णन किया गया है।
3 तृतीय प्रकरण में “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्” की व्याख्या की गई है। इसी में सृष्टिप्रसंग में मनु और प्रजापति के विषय में विभिन्न रोचक मत प्रस्तुत किये गये है।
4 चतुर्थ प्रकरण में अनेकों शङ्काओं का समाधान किया गया है जैसे – मन्वादि धर्मशास्त्रों में शूद्रादि के उपनयन का निषेध क्यों किया है? चारों वर्णों से विभिन्न जातियों की उत्पत्ति कैसे हुई? व्रात्य संज्ञा और शूद्र की मीमांसा की गई है। इसमें वर्ण परिवर्तन के अनेकों ऐतिहासिक उदाहरणों को प्रस्तुत किया गया है।
5 पञ्चम परिशिष्ट प्रकरण में उपनिषदादि अनेकों ग्रन्थों के प्रमाण से गुण-कर्म से वर्णव्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है तथा “सं गच्छध्वं सं वदध्वम्” की व्याख्या की है।
इस प्रकार अनेकों रोचक विषयों से परिपूर्ण यह पुस्तक पाठकों के लिए अत्यन्त लाभदायक होगी तथा अनेकों शङ्काओं का इस पुस्तक के माध्यम से जिज्ञासुगण समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
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