पुराणों के सम्बन्ध में पाश्चात्य तथा प्राच्य विद्वानों ने अनेक मत प्रतिपादित किया है। पुराणों में अनेक पाठ भेद के कारण इनको पुराणों की प्रामाणिकता संदिग्ध लगती है। इस प्रकार से श्रद्धारहित पाश्चात्य तथा तदनुयायी विद्वानों का मत पुराणों के प्रति संदिग्ध सा है। ऐसी उनकी मानसिकता हो गयी है, तथापि पूर्वकालीन तथा मध्यकालीन विद्वानों ने दीर्घकाल के कालप्रवाह में भी इनको प्रामाण्य माना है। इसी दृष्टिकोण से यहां कुछ पंक्तियां लिखी जायें, यह उपक्रम कर रहा हूं। मेरी मानसिकता पुराणों के प्रति सबद्ध है। अतः इसी श्रद्धा-विश्वास की भित्ति पर आधारित यह निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूं।
अथमतः यह कहना है कि जिस कालिका पुराण का भाषा संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है, वह पुराण मुख्यतः उपपुराण के अन्तर्गत् गण्य है। स्मार्त विद्वान् रघुनन्दन भट्टाचार्य द्वारा कूर्मपुराण की तालिका का “कालिकाद्वयमेव च” उद्धरण प्रस्तुत किया गया है अर्थात् कूर्मपुराण में उपपुराण रूप कालिका पुराण का उल्लेख मिलता है। इस दृष्टिकोण से दुर्गापूजा की पुराणोक्त धारात्रय भारत में प्रवहमान है। यथा (१) बृहत्रन्दिकेश्वर, (२) देवीपुराण तथा (३) कालिकापुराण। इन पंक्तियों के लेखक द्वारा देवीपुराण का भारत में प्रथम बार भाषानुवाद करके प्रकाशित कराया जा चुका है। कालिका पुराण का यह भाषानुवाद प्रस्तुत है।
इसकी प्रामाणिकता उल्लेखनीय है यथा-
१) कूर्मपुराण की तालिका कूर्मपुराण अध्याय, द्वादशवां उपपुराण।
( (२) नित्याचार पद्धति में कालिकापुराण का उल्लेख, बारहवां उपपुराण।
(३) वीर मित्रोदय में उल्लेख, बारहवां उपपुराण के रूप में।
(४) स्कन्दपुराणान्तर्गत् सौर संहिता में उपपुराण की तालिका में यह बारहवां उपपुराण है।
(५) स्कन्दपुराणान्तर्गत् रेवाखण्ड, रेवा माहात्म्य, प्रभास खण्ड, सूतसंहिता में भी यह बारहवां उपपुराण है।
(६) गरुड़ पुराणोक्त तालिका में भी इसका उल्लेख बारहवें उपपुराण रूप में है।
(७) पद्मपुराण पाताल खण्ड में कालिकापुराण को बारहवां उपपुराण माना है।
(८) मधुसूदन सरस्वती के प्रस्थानभेद अन्य में इसकी संख्या बारहवां उपपुराण है।
(९) वारुण उपपुराण में कालिकापुराण भी बारहवां उपपुराण है।
(१०) पराशर उपपुराण की तालिका में भी यह बारहवां उपपुराण है।
( ११) ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी इसकी बारहवीं उपपुराण के रूप में मान्यता है। (१२) लक्ष्मीधर के कल्पतरु (१११० से ११३० ई०) में भी कालिकापुराण का उल्लेख है।
यह पुराण वेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई द्वारा ९३ अध्यायों में मुद्रित हुआ था। बंगभाषा में भी इसकी प्रति उपलब्ध थी। इसकी एक पाण्डुलिपि गायकबाड़ ओरियेन्टल पुस्तकालय, बड़ोदा में भी संगृहीत है। इसी की एक प्रति इण्डिया लाइब्रेरी लंदन में है, ऐसा उल्लेख विद्वानों ने किया है। डॉक्टर शर्मा ने ‘इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, सन् १९५६, जिल्द १६ ५० ३५-४० में व्यक्त किया है कि यह उपपुराण कामरूप के राजा धर्मपाल के काल में पूर्ण हुआ था। डॉ० रापवन इसी क्वार्टरली की जिल्द १२, पृष्ठ ३३१-३६० में कहते हैं कि इसके तीन पाठान्तर हैं। आज जो प्रति उपलब्ध है उस आधार पर इसका काल १००० ई० का माना जाता है। इत्यादि। तथापि मेरा मत है
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