पुस्तक परिचय… ◙
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“महर्षि दयानन्द: काल और कृतित्व”
* लेखक: प्रा. डॉ. कुशलदेव शास्त्री
* संस्करण: सन् २००९ (सजिल्द)
* पृष्ठ संख्या: ४६४
* मूल्य: ५०० रु.
* प्रकाशक: श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डौन सिटी (राजस्थान)
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लेखक परिचय:
स्मृतिशेष प्रा. डॉ. कुशलदेव शास्त्री एक प्रभावशाली लेखक, संशोधक, अनुवादक और सम्पादक थे. अपने वैविध्यपूर्ण लेखन के द्वारा आर्यजगत् में उन्होंने अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया था. महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज उनके मनन, चिन्तन और अनुसन्धान के प्रिय विषय थे. इस कार्य को उन्होंने अपने जीवन का ‘मिशन’ बना लिया था. उनके इस संसार से अचानक चल बसने के कारण वह ‘मिशन’ अधूरा ही रह गया, परन्तु अपने विचारो के रूप में वे आज भी हमारे साथ है.
प्रा. डॉ. कुशलदेव शास्त्री हिन्दी, संस्कृत, पाली और मराठी के विद्वान थे. मातृभाषा मराठी, राष्ट्रभाषा हिन्दी और देवभाषा संस्कृत पर उनका अधिकार था. मराठावाड के एक आर्यसमाजी परिवार में उनका जन्म हुआ था. उनके पिता श्री शंकरराव जी कापसे एक देशभक्त थे, स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुयायी थे और ‘हैदराबाद मुक्ति संग्राम’ से वे जुडे हुए थे. इसीलिए उन्होंने कुशलदेव को गुरुकुल में शिक्षा दिलाई थी. डॉ. कुशलदेव शास्त्री जी न केवल सुशिक्षित थे, बल्कि सुदीक्षित भी थे. उन्होंने अपनी ज्ञान-साधना के द्वारा सरस्वती औए संस्कृति का वरदान प्राप्त किया था. वैदिक साहित्य के वे मेधावी अभ्यासक और अथक अनुसन्धानकर्ता थे.
स्मृतिशेष प्रा. डॉ. कुशलदेव जी शास्त्री ने इस ग्रन्थ में जिस कुशलता और निर्लिप्त भाव से देव दयानन्द के जीवन के अनछुये पहलुओं को प्रकाशित किया वह कार्य श्लाघनीय है. जीवन के अन्तिम समय तक वे दयानन्दीय कृतित्व की शोध में लगे रहे. प्रस्तुत पुस्तक में महर्षि दयानन्द से सम्बन्धित जिन जिन बिन्दुओं को छुआ है वहाँ अपने मानसगुरु को महिमा-मण्डित करने का यत्न नहीं है. ऋषि दयानन्द का कार्य तो स्वयम् में महत्ता का दर्शन है. यदि यह कहा जाये कि कुशलदेव जी ने ऋषि दयानन्द के कृतित्व व कर्म को जिस सूक्ष्मता से देखा था वही उन्हें महर्षि दयानन्द का प्रशंसक व भक्त बनाता है.
* पुस्तक परिचय:
“महर्षि दयानन्द: काल और कृतित्व” यह प्रा. डॉ. कुशलदेव शास्त्री द्वारा संकलित इकतीस शोध निबन्धों का पांच अध्यायों में विभाजित एक अनुसन्धानात्मक ग्रन्थ है. ये सभी लेख महर्षि दयानन्द की विचार सरणी, आर्यसमाज की स्थापना एवं कार्य और महर्षि के महाराष्ट्रीय समाज-सुधारकों के सम्पर्क एवं सान्निध्य से सम्बन्धित है.
इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय: (दयासागर दयानन्द) में ऋषि दयानन्द के समग्र रचना संसार के माध्यम से तथा स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच के भेदभाव को नकारते हुए मानव मात्र को वेदाधिकार देने के उनके सुदृढ कदम से और दलितोद्धारक की संवेदनशील भूमिका से महर्षि के मानवतावादी व्यक्तित्व को रेखांकित करने का विनम्र प्रयास किया गया है. मानवतावादी दयानन्द के साथ-साथ उनके दिग्विजयी रूप को सिद्ध करनेवाले उनके शास्त्रार्थ रूपी ब्रह्मास्त्र की विकिर्ण सामग्री से एक शास्त्रार्थ का संविधान भी इस अध्याय मे प्रस्तुत किया गया है.
द्वितीय अध्याय: (महर्षि और उनके समकालीन) में महर्षि दयानन्द और उनके समकालीन (महात्मा फुले, दादासाहब खापर्डे, फादर नेहेम्या गोरे, पण्डिता रमाबाई आदि) महापुरुषों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है. इस अध्याय में महापुरुषों के साम्य के साथ-साथ वैषम्य को भी रेखांकित करने का विनम्र प्रयास किया गया है.
तृतीय अध्याय: (जिन्होनें महर्षि का सान्निध्य पाया) में अधिकांश रूप में १९वीं शताब्दी के (नाना जगन्नाथ शंकरशेठ, पण्डित विष्णु परशुराम शास्त्री, वामन आबाजी मोडक, महादेव मोरेश्वर कुण्टे, बाबू विपिनबिहारी बगाली, श्री शिवकर बापूजी तळपदे, आदि) वे विशिष्ट व्यक्तियों का परिचय दिया गया है, जिनकों किसी-न-किसी कारण से महर्षि दयानन्द का सान्निध्य प्राप्त हुआ था. इन महनीय व्यक्तियों में श्री शंकरशेठ और श्री शिवकर बापू तळपदे दो ऐसे नाम है जो महर्षि दयानन्द का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सके थे, फिर भी उनके नाम प्रस्तुत अध्याय में समाविष्ट करने के कुछ विशिष्ट कारण है, जो पाठक को ग्रंथ का अनुशीलन करते समय ज्ञात हो जायेंगे.
चतुर्थ अध्याय: (महर्षि दयानन्द और महाराष्ट्र) में मुम्बई आर्यसमाज की वर्णानुक्रम से प्रकाशित सदस्य-सूची में लेखक ने उन सदस्यों को पहली बार रेखांकित किया है, जिन्होंने महर्षि जे समय में ही ‘वेदभाष्य’ मासिक के ग्राहक बनकर उनके वेद प्रचार आन्दोलन को विशिष्ट गति दी थी. इसके अतिरिक्त प्रस्तुत अध्याय में आर्यसमाज मुम्बई के प्रारम्भ कालीन वक्ताओं द्वारा दिये गये व्याख्यानों के विषय और दिनांक को पहली बार इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है. नासिक, मुम्बई, ठाणे के अतिरिक्त महर्षि दयानन्द महाराष्ट्र के पुणे, सातारा और वसई गांव भी पधारे थे. इनमें से कतिपय नगरों की तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन कर महर्षि दयानन्द कालीन महाराष्ट्र का सामान्य परिचय देने का प्रयास किया गया है. इसी अध्याय में महर्षि द्वारा पांच बार की गई महाराष्ट्र की यात्राओं में जिन-जिन महाराष्ट्रीय सज्जनों ने यतिश्रेष्ठ दयानन्द जी को अविस्मरणीय सहयोग दिया, उनका यथोपलब्ध परिचय दिया गया है. इस के साथ ही इस अध्याय के अन्त में महर्षि दयानन्द की इन प्रचार-यात्राओं और वैदिक विचारधारा का महाराष्ट्र पर जो प्रभाव रहा उसे भी स्पष्ट करने का विनम्र प्रयास किया गया है.
पंचम अध्याय: (महर्षि और उनके चरित्र में चर्चित कतिपय व्यक्तियों की वंशावली) में महर्षि के चरित्र में चर्चित श्री मूलजी ठाकरशी, महात्मा ज्योतिबा फुले, श्री गंगाराम भाऊ म्हस्के, श्री नारायण भिकाजी जोगळेकर, बाबू रामविलास शारदा, डॉ. अण्णा मोरेश्वर कुण्टे, आदि कतिपय व्यक्तियों की वंशावली प्रस्तुत की गई है.
डॉ. कुशलदेव शास्त्री ने इस ग्रन्थ-रत्न में महर्षि दयानन्द सरस्वती के सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री के अनुसन्धान और प्रकाशन का प्रशंसनीय कार्य किया है. महर्षि के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न अज्ञात अथवा लुप्तप्रायः पहलुओं को उजागर करने में उनका उल्लेखनीय स्थान था. महर्षि दयानन्द के विचार एवं कार्य पर उनकी गहरी श्रद्धा थी. उनका अनुसन्धान कार्य अधिकतर ‘समाज-सुधार’ और ‘समाज-सुधारक’ विषय पर था. सत्य की खोज अन्वेषणकर्ता का ‘मिशन’ और निष्पक्षता उसका ‘धर्म’ होता है. एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में तराजू पकडकर उसे अपने विचार संतुलित मन से अभिव्यक्त करने होते है. यह कर्तव्य डॉ. कुशलदेव शास्त्री ने बहुत ही कुशलता से निभाया है. उनके अनुसन्धान कार्य में अनुशासन, संयम और विनम्रता है. उनका यह शोधपूर्ण तथा दुर्लभ चित्रों से सुसज्जित ग्रन्थ – “महर्षि दयानन्द: काल और कृतित्व” – वस्तुतः अनुशीलन के योग्य है.
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