ग्रन्थ का नाम – मीमांसा दर्शन
भाष्यकार – आचार्य उदयवीर जी शास्त्री
मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महर्षि जैमिनि हैं। इस ग्रन्थ में बारह अध्याय हैं जिनमें साठ पाद हैं। सूत्रों की संख्या २७३१ हैं। इस दर्शन का जिज्ञास्य विषय धर्म है।
धर्म और वेद-विषयक विचार को मीमांसा कहते हैं। इस दर्शन में वेदार्थ का विचार होने से इसे मीमांसा दर्शन कहते हैं। इस दर्शन में यज्ञों की दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या की गई है।
मीमांसा दर्शन के मुख्य तीन भाग हैं। प्रथम भाग में ज्ञानोपलब्धि के मुख्य साधनों पर विचार है। दूसरे भाग में अध्यात्म-विवेचन है और तीसरे भाग में कर्तव्या-कर्तव्य की समीक्षा है।
इस दर्शन में ज्ञानोपलब्धि के साधन-भूत छह प्रमाण माने गये हैं –१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान, ४. शब्द, ५. अर्थोपत्ति और ६. अनुपलब्धि।
इस दर्शन के अनुसार वेद अपौरुषेय, नित्य एवं सर्वोपरि है। वेद में किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं है, अतः हमारा कर्तव्य वही है, जिसका प्रतिपादन वेद ने किया है। हमारा कर्तव्य वेदाज्ञा का पालन करना है। यह मीमांसा का कर्त्तव्याकर्त्तव्यविषयक निर्णय है।
मीमांसा का ध्येय मनुष्यों को सुःख प्राप्ति कराना है। मीमांसा में सुःख प्राप्ति के दो साधन बताए गये हैं – निष्काम कर्म और आत्मिक ज्ञान। मीमांसा दुःखों के अत्यन्ताभाव को मोक्ष मानता है।
प्रस्तुत भाष्य आचार्य उदयवीर जी द्वारा रचित है। यह भाष्य आर्याभाषानुवाद में होने के कारण संस्कृतानभिज्ञ लोगों के लिए भी उपयोगी है। यह भाष्य शास्त्रसम्मत होने के साथ-साथ विज्ञानपरक भी है। प्रारम्भ में ही अग्निषोमीय यज्ञीय पशुओं के सन्दर्भ में “आग और सोम” शब्दों की कृषि-विज्ञान-परक व्याख्या को देखने से इस कथन की पुष्टि हो जाती है। आलंभन, संज्ञपन, अवदान, विशसन, विसर्जन आदि शब्दों के वास्तविक अर्थों को समझ लेने पर यज्ञों में पशुहिंसा-सम्बन्धी शंकाओं का सहज ही समाधान हो जाता है।
जहां यह भाष्य मीमांसा-शास्त्र के अध्येताओं का ज्ञानवर्धन करेगा, वहीं अनुसन्धनाकर्ताओं के लिए अपेक्षित सामग्री प्रस्तुत करके उनको दिशानिर्देश प्रदान करेगा।
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