यह सर्वविदित है कि भारत में मुस्लिम राजनैतिक प्रभुत्त्व, तलवार तथा उन्माद के आधार पर हुआ। मुस्लिम शासकों ने सामान्यतः यहां की भारतीय जनता के प्रति, कुछ अपवादों को छोड़कर, कभी उदारता, धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक समरसता, सामाजिक समता का भाव प्रदर्शित नहीं किया।
सामान्यतः समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों की दृष्टि इस्लाम प्रचार तथा राजकीय चाटुकारिता की रही। उनकी दृष्टि का मार्गदर्शक वाक्य रहा, “इतिहास के लिए पक्का मुसलमान होना चाहिए, उन्हें किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है। धर्मनिष्ठ मुसलमान के लिए प्रत्येक लेख पर सभी को विश्वास करना चाहिए।" इतिहास लेखन की यह मध्यकालीन परम्परा आज भी दिखलाई देती है। आधुनिक मुस्लिम विद्वानों द्वारा अनेक मुस्लिम शासकों को बढ़ा-चढ़ा कर लिखने का प्रयत्न होता रहा है। आज भी वे इस्लाम को छोड़कर अन्य धर्मों को हीन अथवा झूठा मानते हैं। इतना अवश्य हुआ कि वे अतार्किक ढंग से यह कहने लगे हैं कि इस्लाम धर्म बलपूर्वक मुसलमान बनाने की इजाजत नहीं देता तथा इसके लिए भारत में तलवार द्वारा बहुत कम अत्याचार हुए हैं। दूसरे कुछ आधुनिक हिन्दू विद्वानों के प्रयास भी तथ्यमूलक तथा सही
नहीं रहे। "इन्होंने अपने धर्म और संस्कृति पर हुए बड़े आघात को सहनकर भारत में साम्प्रदायिक एकता और शांति बनाये रखने के लिए तथ्यों की ओर से आंखें मीच ली हैं, किन्तु प्रश्न यह होता है कि क्या वे इतिहास को झूठा बताकर भी अपने प्रशंसनीय उद्देश्य में सफल हो सके हैं।" वस्तुत: भारतीय इतिहासकारों ने तथ्यों के आधार पर इसका विश्लेषण करते समय हिचकिचाहट की। सम्भवतः अरबी तथा फारसी की अज्ञानता, शासन का भय तथा स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की कमी रही हो।
विदेशी विद्वानों ने भी यह स्वीकार किया है कि "भारतीय इतिहासकार ने सन्तुलित तथा जहां तक सम्भव हो सहयोगी मार्ग अपनाया।" इसके साथ यह भी लिखा कि अंग्रेज इतिहासकारों ने इस दृष्टिकोण को महत्त्व देते हुए मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्ति का मार्ग अपनाया है। समय-समय पर राजनैतिक परिस्थितियों के बदलते सन्दर्भ में इतिहास लेखन की प्रक्रिया को प्रभावित किया। विशेषकर ब्रिटिश शासकों द्वारा देश की स्वतन्त्रता के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता की शर्त की कूटनीतिज्ञ चाल ने अनेकों को विस्मित किया। राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रमुख मंच कांग्रेस भी इस शब्द जाल की चपेट में आ गई। इतिहास की रचना इस प्रकार से करवाई गई कि मुस्लिम समुदाय सन्तुष्ट रह सके। इस्लाम के एकेश्वरवाद के प्रभाव को भारतीय धर्म तथा संस्कृति पर दर्शाना या मुस्लिम शासन में हिन्दू प्रजा को मुसलमानों का छोटा भाई बतलाना आदि ऐसे ही तथ्यहीन तथा तर्कहीन प्रचार का भाग बने। स्वतन्त्रता के पश्चात् मार्क्सवादी अथवा कतिपय सेकुलरवादी लेखक इस दिशा में आगे आये। वस्तुतः धर्म निरपेक्ष मुस्लिम राज्य का विचार इन्हीं आधुनिक मार्क्सवादी अथवा सेकुलरवादी लेखकों की उपज है, जो मुस्लिम सभ्यता को सहनशील सभ्यताओं की कोटि में रखना चाहते हैं। उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि मुस्लिम शासन को 'शानदार', मुस्लिम आक्रमणकारियों को 'महान' तथा उनके शासनतन्त्र को 'राष्ट्रीय' बतलाकर ऐतिहासिक तथ्यों को नहीं बदला जा सकता। शब्दों के जाल अथवा व्याख्या से इस्लाम के 'शक्ति' के महत्त्व को न कम किया जा सकता है और न ही इस्लाम के इतिहास तथा दर्शन को बदला जा सकता है। हां, इसका तात्कालिक प्रभाव अवश्य हुआ। “इतिहास के कुछ शिक्षक तो और भी अधिक बढ़ जाते हैं। वे कक्षा के शांत और सुरक्षित वातावरण में अपने छात्रों को पढ़ाते हैं कि औरंगज़ेब महान देशभक्त भारतीय था और उसने सम्पूर्ण देश में एकता स्थापित करने के लिए घोर श्रम किया था।" कुछ ने तो औरंगजेब को 'जिन्दा पीर' भी कह दिया। “किन्तु इन बे-सिर-पैर की बातों में न कोई तर्क है और न तथ्य। इन बातों में ऐसा सफेद झूठ है कि उसका खण्डन करना व्यर्थ है।"
भारत का इस्लाम जगत से राजनैतिक सम्बन्ध सातवीं शताब्दी से अर्थात् लगभग 1300 वर्षों से रहा है। तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से 19वीं शताब्दी के मध्य (1206-1857) तक मुसलमान यहां के कुछ भूखण्ड के शासक रहे। विशेषकर उनका राजनैतिक प्रभुत्त्व उत्तरी भारत पर रहा। उनके शासन का स्वरूप आक्रामक, हिंसक तथा स्वेच्छाचारी रहा। उनका शासन मज़हब तथा सैनिक तन्त्र पर आधारित था, न कि सांस्कृतिक-सामाजिक धरातल पर या जनहितकारी नीतियों पर। यह कटु सत्य है कि भारत में मुसलमानों का इतना लम्बा शासन काल – > होने पर भी यहां के मूल निवासियों अर्थात् हिन्दुओं का अभी तक भी परस्पर कोई सामाजिक, सांस्कृतिक, आदान-प्रदान नहीं है। इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं है कि आजादी के बाद भी यहां के सामान्य नागरिक, मुसलमानों के रीति-रिवाजों, खान-पान, धार्मिक क्रिया-कलापों, त्यौहारों, उत्सवों, मेलों, धर्म-ग्रन्थों के प्रति अपरिचित हैं। उनकी अधिकतर जानकारी टी.वी. या चलचित्रों के माध्यम से अधिक होती है।
विश्व के अनेक देशों (लगभग 73 देशों) में इस्लाम फैला। परन्तु विश्व में कहीं भी इतना अलगाव, टकराव, बिखराव, ठहराव दिखलाई नहीं देता जितना भारत के मुसलमानों तथा हिन्दुओं में। अधिकतर मुसलमान अभी भी भारतीय पर्यावरण को न अपना सके। अनेक मुसलमानों के लिए भारतीय संविधान, समान कोड, परिवार नियोजन, अनेक न्यायिक निर्णय, विवाह तथा तलाक आदि के नियम कोई मायने नहीं रखते। संसार के कुछ अन्य मुस्लिम देशों में – टर्की, इण्डोनेशिया, मिस्र की सोच में भारी बदलाव हुआ। वहां के मुसलमान, अपने-अपने समाज के साथ समरस हो रहे हैं परन्तु भारत में, मुसलमानों को भारत की मुख्य धारा में मिलने में कठिनाई आ रही है। क्या भारत का मुसलमान 'हम यहां के शासक थे' के अहंकार को छोड़ यहां के जन-जीवन से समरस होगा? –
इस ग्रन्थ का लेखक इससे भली-भांति परिचित है कि इतने लम्बे (712-1857) काल खण्ड को कुछ पृष्ठों में बांधना सम्भव नहीं है। न ही यह सम्भव है कि समस्याओं का निराकरण हो सके। उपरोक्त ग्रन्थ में इतिहास के सन्दर्भ में मुस्लिम शासकों के व्यक्तिगत जीवन तथा चिन्तन के आधार पर उनके धार्मिक तथा सामाजिक तथा आर्थिक क्रिया-कलापों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य भारत में मुस्लिम शासक की विस्तृत चर्चा करना नहीं है, न ही उनके कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना है, बल्कि उनके व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों के आधार पर उनके अपनी जनता के प्रति व्यवहारों तथा क्रिया-कलापों की संक्षिप्त चर्चा है। इसमें सार रूप में भारतीय जनता पर विशेषकर बहुसंख्यक हिन्दू समाज के प्रति उनकी नीतियों को दर्शाया है। लेखक ने जानबूझकर उनके राजनैतिक पक्ष – लड़ाइयों, शासन-प्रबन्ध, कूटनीतिक-सम्बन्धों, विद्रोहों को छोड़ दिया है। इनका प्रयोग केवल इतिहास को जोड़ने के लिए किया गया है। –
पुस्तक मुख्यत: समकालीन इतिहासकारों तथा लेखकों के वर्णनों पर आधारित है। इसमें तत्कालीन फारसी ग्रन्थों के विभिन्न अनुवादों की पूरी सहायता ली गई है। लेखक उपरोक्त ग्रन्थ के लिखने में जुटाई गई सामग्री के लिए समकालीन तथा आधुनिक सभी विद्वानों, लेखकों तथा अनुवादकों का ऋणी है जिनका इसके लेखन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग रहा है। लेखक उन सबका हृदय से आभारी है। विशेषकर प्रथम अध्याय में वर्तमान लेखकों के लेखों को जो इन्टरनेट पर उपलब्ध हैं तथा 'नासा' से प्राप्त चित्रों की सहायता ली है, लेखक उन विद्वानों का भी ऋणी है।
पुस्तक के लेखन में मेरी पत्नी प्रमोद का पग-पग पर साथ रहा है तथा उन्होंने पाण्डुलिपि को पढ़ने तथा शुद्ध करने में सहायता दी। पौत्र दिव्य तथा भव्य ने प्रथम अध्याय के लिए इन्टरनैट से आधुनिकतम सामग्री जुटाने में महत्त्वपूर्ण सहायता की तथा पुत्र आशीष ने उसके प्रकाशन में तत्परता दिखलाई। मैं सभी का हृदय से आभारी हूं।
15 अगस्त, 2007
सतीश चन्द मित्तल
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