वेद भारतीय साहित्य का वह स्वरूप है जिसमें समस्त ज्ञान का भाण्डागार एवं समस्त विद्याओं का मूल बीज सत्रिहित है। कुछ भी इस प्रकार का ज्ञेय नहीं है जिसका मूल बीज वेद में उपलब्ध न हो। अपने अन्तश्चक्षुओं के द्वारा ज्ञान का साक्षात् करने वाले ऋषियों से अनुभूत अध्यात्मशास्त्र आदि के तत्त्वों के विस्तृत शब्दराशि का नाम वेद है। तपःपूत ऋषियों ने सूर्य की किरणों के प्रथम आविर्भाव के साथ शान्त एवं पवित्र आश्रमों तथा अपने अन्तःकरण में मन्त्रों का प्रत्यक्ष किया। इसीलिए वेद को अनादि एवं अपौरुषेय मानने वाले आचार्य उन्हें ‘मन्त्रकर्तारः’ न कहकर ‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः’ मानते हैं। अनेक विचारक विश्व-साहित्य में भारतीय साहित्य की श्रेष्ठता का एकमात्र कारण वैदिक साहित्य को ही मानते हैं। विंटरनिट्ज ने Indischen Literature के प्रथम भाग में कहा है- ‘भारतीय वाङ्मय के प्राचीनतम संग्रह के रूप में प्रथम ऋग्वेद का स्थान है’।
वेद शब्द की व्युत्पत्ति पर संहिता, उपनिषद, आयुर्वेद, नाट्यशास्त्र, कल्प, कोष, मनुस्मृति प्रभृति ग्रन्थों में सविस्तार प्रकाश डाला गया है। पं0 वाचस्पति गैरोला के विचार में वेद शब्द की निष्पत्ति चार से हुई है- (i) विद्-ज्ञान, (ii) विद् सत्यम्, (iii) विद् लाभे और (iv) विद् विचार। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेद शब्द का निर्वचन इस प्रकार किया है- ‘विदन्ति जानन्ति, विद्यान्ते भवन्ति विन्दन्ति’ या ‘विन्दन्ते लभन्ते विन्यन्ति विचारेन सर्वेति मनुष्याः सत्यविद्यां येषु विद्वानः ते वेदाः।’ वे पुनः कहते हैं-वेद शब्द का व्याकरण-निष्पन्त्र शास्त्रीय अर्थ ‘ज्ञान’ है इसलिए वे ‘वेद’ की व्युत्पत्ति ज्ञानार्थक विद धातु से माने जाते हैं। वैदिक वाङ्मय में तीन बातें प्रमुख हैं, वाचिक-परम्परा पर, मूल ज्ञान सम्पद बल का सतत उपबृहन् तथा स्वाधीनता की परिकल्पना। ये त्रिमूर्ति बातें वैदिक साहित्य की आधार-पीठिका हैं। वाचिक परंपरा से इस ज्ञानराशि को सुरक्षित रखने के कारण वेद को ‘श्रुति’ नाम दिया गया। इसलिए प्रत्येक अक्षर, प्रत्येक स्वर को सुरक्षित रखने के लिए कोड-पाठ, पदपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ, घनपाठ जैसे उपाय
का ऋषियों ने आविष्कार किया।
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