मनुष्य क्या है ? कौन है ? उसके जीवन का लक्ष्य क्या है? यह संसार क्या है ? इसकी सृष्टि कैसे होती है ? इसका स्रष्टा कौन है ? मनुष्य को कैसा जीवन विताना चाहिये ? ईश्वर तथा कर्म क्या है ? इत्यादि अनेक विचार मानव को प्रारम्भ से ही, जब से भी उसमें विचार करने की शक्ति आयी हो, द्वैविध्य में डालते रहे हैं। तत्त्वदर्शियों के मत में मानव को इन विषयों का तत्त्वज्ञान हो सकता है। इसी को भारतीय तत्त्वदर्शी ‘सम्यग्दृष्टि’ या ‘दर्शन’ कहते हैं। सम्यग्दर्शन (तत्त्वज्ञान) होने पर कर्म मनुष्य को बन्धन में नहीं डालते, परन्तु जिनको यह ‘सम्यग्दर्शन’ नहीं है वे भववन्धन में ही फँसे रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘दर्शन’ उक्त सभी प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर देकर मानव को लक्ष्य तक पहुँचा देता है। विचारप्रणाली व्यापक है, प्राचीन या आधुनिक, वैदिक या
भारतीय दर्शनों की अवैदिक, आस्तिक या नास्तिक-सभी भारतीय तत्त्वदर्शी स्वपक्षस्थापन के समय परपक्ष पर अवश्य विचार करते आये हैं। इसी लिये सर्वदर्शनसंग्रहकार ने जहाँ वैदिक धर्मानुयायी तथा ईश्वरवादी भारतीय दर्शनों का संग्रह किया है वहाँ उन्होंने चार्वाक, जैन तथा बौद्ध दर्शनों का भी संग्रह किया है। यह बात दूसरी है कि स्वयं माधवाचार्य एक वैदिक दार्शनिक थे, अतः उन्होंने उक्त नास्तिक दर्शनों को सर्वप्रथम (पूर्वपक्ष के रूप में) ही रखा। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारतीय दार्शनिकों की विचारदृष्टि व्यापक तथा उदार रही है।
इसी व्यापक दृष्टि के कारण, प्रत्येक भारतीय दर्शन की शाखा अपने आप में सम्पन्न है। निदर्शन के रूप में, हम इस न्यायदर्शन को ही लें-इस न्यायदर्शन में चार्वाक, जैन, बौद्ध, साङ्ख्य, मीमांसा, वैशेषिक, तथा वेदान्त आदि सभी अन्य दर्शनों पर यथास्थान विचार किया गया है। यों, भारतीय दर्शनों में प्रत्येक दर्शन ज्ञान का एक स्वतन्त्र कोष है। हम यह प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि जिस विद्वान् को भारतीय दर्शनों का सम्यक्तया ज्ञान है, वह पाश्चात्त्य दर्शनों की जटिल प्रणाली का भी सुगमतया अवगमन कर सकता है।
दर्शनों का विभाग
भारतीय दर्शनों का विभाजन करने से पूर्व हम यह मान लेते हैं कि सभी दर्शन ‘वेद’ तथा ‘ईश्वर’ को वृत्त मानकर चले हैं। इसी वृत्त के सहारे वे आस्तिक या नास्तिक तथा वैदिक या अवैदिक यों दो स्थूल भागों में विभक्त हो गये। वेद को न माननेवाले दर्शन तीन हैं- १. चार्वाक, २. जैन, तथा ३. बौद्ध। इन तीनों को वेद का प्रामाण्य न मानने के कारण दार्शनिक लोग अवैदिक या वेदविरोधी संज्ञा से उद्बोधित करते है।
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