साध्भ्रमत्यास्तु माहात्म्यं वक्ष्ये देवि! यथातथम्। कश्यपो वै मुनिश्रेष्ठस्तपो वै तप्तवान्महत्।।१।। अनेकवर्षपर्यन्तं तेन तप्तं महत्तपः। अर्बुदे पर्वते रम्ये नानाडुमसमाकुले ॥२॥ तत्र गत्वा तपस्तप्तमृषिणा कश्यपेन वै। सरस्वती यत्र रम्या पवित्रा पापनाशिनी ॥३॥ एकस्मिन्दिवसे देवि गतोऽसौ नैमिषं प्रति। तदा तऋषयः सर्वे कथां चक्कुरनेकशः ॥४॥ तदा तैस्तुद्विजैः सम्यक्पृष्टोऽसौ कश्यपोमुनिः। अहो कश्यपनः प्रीत्यैगङ्ग्रेहानीयतांप्रभो ॥५॥
भवन्नाम्ना तु सा गङ्गा भविष्यति सरिद्वरा। तेषां वाक्यमुपाकर्ण्य नमस्कृत्य द्विजांच तान्॥६॥
श्री महादेव कहते हैं-हे देवी। साभ्रमती के माहात्म्य का मैं ययायय कीर्तन करता हूं। मुनिप्रवर कश्यप ने दीर्घ तप किया था। नाना वृक्षों से समाकुल अर्बुदाचल पर जाकर उन्हेंने दीर्घकाल तक (अनेक वर्षों तक) कठोर तप किया था। इस अर्बुद पर्वत में से हो रम्य पवित्र पापहारिणो सरस्वती नदी प्रवाहित होती है। हे देवी। एक बार मुनिप्रवर कश्यप मुनि नैमिषारण्य पर गये। वहां ऋषिगण ने उनसे अनेक प्रश्न पूछा। अन्ततः उन्होंने कहा कि “हे कश्यप ! आप हमारी प्रसत्रता के लिये यहां गंगा को लायें। वह गंगा यहां आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी।” यह सुनकर महर्षि कश्यप ने उनको नमस्कार किया।।१-६।।
आगतो ह्यर्बुदारण्ये सरस्वत्याश्च सन्निधौ । तत्र तप्तं तदा तेन तपः परमदुष्करम् ॥७॥ आराधितो ह्यहं तेन कश्यपेन द्विजेन वै। प्रत्यक्षोऽहं तदा जातस्तस्य द्विजवरस्य च ॥८॥ वरं वरय भद्रं ते यत्ते मनसि वर्तते ॥९॥
तदनन्तर महर्षि कश्यप ने ऋषियों की प्रसत्रता हेतु अर्बुदारण्य में सरस्वती के निकट परम दुःष्कर तपस्या करना आरम्भ कर दिया। द्विजप्रवर कश्यप द्वारा आराधित होकर मैं उनके सामने प्रत्यक्ष हो गया। मैंने कश्यप से कहा- “हे द्विजप्रवर कश्यप। तुम्हारा मंगल हो। मनोवांछित वर मांगो।”।॥७-९।।
कश्यप उवाच
वरं दातुं समर्थोऽसि देवदेव जगत्पते। शिरःस्थिता या गङ्गेयं पवित्रा पापहारिणी ॥१०॥ मम देया विशेषेण महादेव नमोऽस्तुते। तदा देवि मयोक्तं च गृह्णीष्व त्वं द्विजोत्तम॥११॥
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