ग्रन्थ का नाम – सांख्यदर्शन
भाष्यकार – आचार्य उदयवीर शास्त्री
सांख्यदर्शन के रचियता महर्षि कपिल है। इस ग्रन्थ में छह अध्याय है। सूत्रों की संख्या 527 हैं और प्रक्षिप्त सूत्र रहित सूत्र संख्या 451 है। इस ग्रन्थ का उद्देश्य प्रकृति और पुरुष की विवेचना करके उनके अलग-अलग स्वरुप को दिखलाना है।
प्रायः गणनात्मक ‘संख्या’ से सांख्य की व्युत्पत्ति मानी जाती है परन्तु इसका सुन्दरतम और वास्तविक अर्थ है विवेकज्ञान।
सांख्यशास्त्र में तत्त्वों के चार प्रकार माने हैं –
1 प्रकृति, 2 प्रकृति-विकृति, 3 केवल विकृति 4 अनुभ्यात्मक।
सांख्य के अनुसार तत्त्व पच्चीस हैं –
प्रकृत्ति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्च तन्मात्राएं, एकादश इन्द्रियाँ, पञ्च महाभूत और पुरुष।
इस दर्शन में आध्यात्मिक, आधिभौत्तिक, आधिदैविक तीन प्रकार के दुःखों से सर्वथा निवृत्त हो जाना ही मुक्ति है। इस दर्शन में मुक्ति प्राप्ति के साधन भी बताएं गये हैं।
इस दर्शन में सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया और सूक्ष्म उपादान तत्त्वों पर विचार प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत भाष्य आचार्य उदयवीर शास्त्री जी द्वारा रचित है। इस भाष्य में शब्दार्थ पश्चात् विस्तृत आर्यभाषानुवाद व्याख्या की गई है। जो सूत्र प्रक्षिप्त थे उनके प्रक्षिप्त होने में सकारण विवेचन प्रस्तुत किया गया है। जिन सूत्रों द्वारा इस दर्शन के ईश्वर को न मानने का भ्रम प्रचलित हो गया था उन सूत्रों का अन्य सूत्रों के सम्बन्ध से युक्तियुक्त अर्थ किया गया है, जिससे इस भ्रान्ति का निराकरण हो जाता है। अन्त में परिशिष्ट दिया है जिसमें अकारादिक्रमानुसार सूत्रसूची दी हुई है।
यह ग्रन्थ जिज्ञासुओं के लिए दर्शनों को आत्मसाद् करने का मार्ग प्रशस्त करेगा।
Reviews
There are no reviews yet.