प्राचीन काल में आर्यों ने सृष्टि और संतानोत्पत्ति सम्बन्धी जो सिद्धान्त प्राप्त कर धार्मिक रूप में लिखे थे वे आज भी निर्विवाद रूप से अटल हैं, उनसे बढ़कर संतान को उन्नत बना, परिवार, समाज व राष्ट्र को उच्च से उच्चतम स्तर पर ले जाने के कोई नियम नहीं है। इसलिये वेद मे परमात्मा कहते हैं-
शुचिः स्म॒ यस्मा॑ अत्रिवत्प्र स्स्तुदिव॒ रीय॑ते। सुशुरो॑सुत मा॒ता क्रणा यर्दन्शे भर्गम् ॥ (ऋ0 5/7/8)
भावार्थ-जो विधि पिता ब्रह्मचर्य की प्राप्ति के बाद सन्तनोत्पति करें तो सुख और ऐश्वर्य प्राप्त होवें।
परम पिता परमात्मा द्वारा “विधिपूर्वक सन्तानोत्पत्ति” का जो कथन कहा गया है, उस विधि को हमारे पूर्वजों, ऋषियों, महर्षियों, आयुर्वेदाचार्यों के मत को जानकर ये “संतान साधना” नामक ग्रन्थ का लेखन कार्य किया गया है।
मनु महाराज उक्त कथन के समर्थन में लिखते हैं कि-
पुत्रेण लोकाञ्जयति पुत्रेणाऽनन्त्यमश्नुते। अथ पुत्रस्य पुत्रेण ब्रधनस्याऽप्नोति विस्तृतम् ॥ (मनु09/137)
पुन्नामनो हेलाद्यास्मात्तत्रयते पितरं सुतः। तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवः। (मनु09/138)
अर्थ-“मनुष्य के पुत्र होने से लोकों को जीतता और पौत्र के होने से चिरकाल पर्यन्त सुख मे निवास करता है और पुत्र के पुत्र (प्रपौत्र) से तो मानो सूर्य लोक को ही पा लेता है। जिस कारण पुन्नाम् अर्थात्
नरक (दुःख) से पुत्र पिता को बचाता है, इस कारण से ब्रह्मा ने इसे पुत्र की संज्ञा दी।
मनु महाराज के इस कथन का तात्पर्य है कि मनुष्य पुत्र, पोत्र व प्रपौत्रों वाला होने से सभी प्रकार के सुखों को प्राप्त करता है क्योंकि वृद्धावस्था में जब काया साथ नहीं देती तब माया भी दूर भागने लगती है और जीवन स्वयं पर बोझ सा हो जाता है, किंतु पुत्र-पोत्र व प्रपोत्र द्वारा वृद्धावस्था में की जाने वाली सेवा से जीवन मानो खिल सा जाता है, जीवन स्वयं को बोझ न लगकर और अधिक जीने की लालसा जगा देता है जिसका लाभ पौत्र व प्रपौत्रों को भी मिलता है जिन्हे वृद्ध हो चुके मनुष्य अपने जीवन के अनुभव किस्सों-कहानियों के रूप में सुना-सुनाकर अच्छे संस्कारवान् बना देते है किंतु आज के समय में हम सब अखबारों में, टी वी पर या फिर सोशल मिडिया पर देखते व पढ़ते है कि बच्चों ने अपने माता-पिता को घर से निकाल दिया. ….या फिर अकेले छोड़ कर विदेश चले गये, अकेले रह रहे दम्पत्ति का रात में किसी ने हत्या कर दी, पुत्र ने ही धन के लालच में अपने पिता या माता को मार दिया। दुर्भाग्यवश इस प्रकार की सूचनाएं अपने आस पड़ोस से भी सुनने को मिल जाती है तब मन में सवाल उठने लगते है कि जिस देश में वेद एवं मनु महाराज के दियें मार्ग का अनुसरण करने वाला पितृ सेवक श्रवण कुमार जो अपने अंधे माता-पिता को कावड़ में बिठाकर अपने कंधे पर उस कावड़ को उठा नंगे पैर पूरे देश के सभी धर्म स्थलों का भ्रमण कराने में स्वयं को भाग्यशाली समझता था। श्रीराम जी जैसे आज्ञाकारी जिन्होंने विवाहोपरांत राजपाट मिलने से ठीक पहले पिता द्वारा दिये गये चौदह वर्ष के वनवास की आज्ञा को बिना एक पल का समय गंवाये शिरोधार्य कर राजपाट के सुख को छोड़ दिया और कभी अपने अधरों से कोई शिकायत न करते हुए जंगलो मे वास किया हो,
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