दुनिया के अधिकांश व्यक्तियों के मन में जीवन व जगत के सम्बन्ध में बहुत से भ्रम, उलझन अथवा संशय प्रतिपल उत्पन्न होते रहते हैं शुभ, अशुभ, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, हेय-उपादेह, भक्ष्य-अभक्ष्य, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, कर्तव्य व अकर्तव्य से लेकर इश्वर, जीव, प्रकृति, जीवन-मृत्यु, पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म आदि के सन्दर्भ में सदैव मन में एक भ्रम या ऊहापोह की स्थिति बनी रहती हैं आजम जनों को लेकर विद्वज्जनों तक के मन-मस्तिष्क व ह्रदय में यह जो संशय या भ्रम की स्थिति बार-बार उत्पन्न होती हैं, उससे जीवन में एक अवरोध,अवसाद,अविश्वास, निराशा, अकर्मण्यता व आत्मग्लानि का भाव पैदा होता हैं व्यक्ति कुंठित होकर बैठ जाता हैं वह धर्म, स्वधर्म, वर्णधर्म, परिवारधर्म, समाजधर्मं, मानवधर्मं व राष्ट्रधर्मं आदि के विषय में कोई निर्णय नहीं ले पाता और परिणामतः महाबलशाली, पराक्रमी, शूरवीर व महाविद्वान व्यक्ति भी कुण्ठित होकर एक उलझन में फंस जाता हैं गीता का अर्जुन तो मात्र एक पात्र हैं जो स्थिति अर्जुन की हैं वही स्थिति आज लगभग प्रत्येक मनुष्य की अपने जीवन में हैं योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की माध्यम बनाकर विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को निराशा, हताशा, अवसाद (डिप्रेशन) से बहार निकलने का उपदेश दे रहे हैं अर्जुन मोहग्रस्त होकर “सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति l वेपथूश्च शरीरे मे रोमाहर्श्च जायते ll (गीता १.२१) आदि श्लोकों के संवाद में श्री कृष्णा से कहा रहे है कि हे श्रीकृष्ण ! मेरा शरीर कॉप रहा हिं, मुख सुख रहा हैं, त्वचा में जलन, मन में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही हैं तथा यह गाण्डीव हाथ से छुटा जा रहा है और ऐसा कहते हुए अंत में वे रथ में बैठ जाते हैं
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में ये समस्त लक्षण तनाव (टेंशन)अथवा अवसाद(डिप्रेशन)के हैं आज आज ये प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित हो रहा हैं अतः इस संपूर्ण विश्व को डिप्रेशन (अवसाद) तथा अवसादजनित रक्तचाप, मधुमेह व ह्रदयरोग आदि से बचाना और इस अवसाद, तनाव, भ्रम या उलझन से बहार निकालकर स्वधर्म में लगाना, अकर्मण्यता, निराशा, अविश्वास तथा आत्मग्लानि को मिटाकर जन-जन में पुरुषार्थ, उर्जा, आशा, विश्वास व आत्मगौरव का भाव जागृत कर उसको स्वकर्म में लगाना अथवा पूर्ण पवित्रता व जवाबदेही के साथ कर्त्तव्य पालन में नियुक्त करना आज के योग की सबसे बड़ी आवश्यकता या प्राथमिकता है योगेश्वर श्रीकृष्ण जी ने पञ्च हजार वर्ष पहले भी जो उपदेश, सन्देश व अंत में जो आदेश दिया था वह आज भी उतना ही सार्थक, प्रासंगिक व आवश्यक हैं
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