स्कन्दपुराण का यह द्वितीय भाग यद्यपि अधिकांशतः तीर्थ पर ही आधारित है, तथापि तीथों का वर्णन करते हुये इस द्वितीय भाग में समापन के समय महर्षि वेदव्यास द्वारा एक विशेष तथ्य यहां अंकित किया गया है। तदनुसार इन पार्थिव तीयों की अपेक्षा गुरुसेवा तथा उनका आज्ञापालन, सत्रशास्त्रानुशीलन पिता-माता की सेवा दया, करुणा आदि भी तीर्थ हैं। सर्वोत्तम तीर्थ है आत्मतीर्थ। परमेश्वर का ध्यान भी तीर्य रूप है। तीर्थ का यचार्य लाभ उनको ही मिलता है, जो इन्द्रियनिग्रह युक्त हैं. क्रोधादि आवेग से जो विचलित नहीं होने तथा जो सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहते हैं। ये सब जंगम तीर्थ हैं।
पार्थिव तीर्थ वे स्थल हैं. जहां कभी किसी काल में कोई अविस्मरणीय तथा पवित्र घटना घटित हो चुकी है। उस पवित्र घटना के अणु (सूक्ष्मतत्व) आज भी वहा विद्यमान हैं। आज भी वहां उस घटना का साक्षीरूप स्यन्दन (Vibration) विद्यमान है। वहां श्रद्धा तथा भाव के साथ जाने पर उस मूक्ष्मतत्व तथा स्पन्दन की ऊर्जा के द्वारा व्यक्ति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रायश सभी तीर्थ जलयुक्त है। यह जल “नार ही परमेश्वर का अयन विश्रामस्थल हैं। यही नार अयन नारायण है। यही रम’ है। इस रस रूप जल में अवगाहन द्वारा व्यक्ति पापरूपी नकारात्मक तत्व एवं प्रभाव से मुक्त हो जाता है। तीयों का जल अपने में किसी पूर्वकाल में घटित किसी परम महत्वपूर्ण तथा लोककल्याणप्रद घटना के सकारात्मक प्रभाव से परिव्याप्त रहता है। उस घटना का सूक्ष्मताच आज भी वहां के वायुमण्डल में ओत-प्रोत रहता है। यही वहां जाने वाले व्यक्ति के अस्तित्व में प्रवेश करके उसका कल्याण साधन करता है। जिनको आत्पतीर्थ का संधान नहीं मिला है, जो अपने अन्तर्जगत् से अपना सम्बन्ध नहीं बना सके हैं ऐसे व्यक्ति का उद्धार मार्ग तीर्थ सेवन से उन्मुक्त हो जाता है।
प्रकृति की निकटता भी नीर्यतत्व का एक प्रमुख सत्य है। यह नील गगन श्यामला धरती, शान्त निर्मल स्वच्छ जल राशि अथवा वायु प्रताड़ित होने पर उसमें उठती तरंग तो परमेश्वर की अपार मता का संकेत है। विज्ञजन कहते हैं कि प्रकृति हमें आवद्ध कदापि नहीं करती। वह हमे अपने अयुति निर्देश द्वारा परमेश्वर के प्रेम तथा ऐश्वर्य का उन्मुक्त प्रदर्शन कराती है। जो प्रकृति की प्रेममयी अन्तरात्मा को सुन्दरतम आनन्दमान प्रकृति को नहीं देख पाते हे तो अभिशप्त जीव है। प्रकृति से निकटता प्रकृति से अन्तरगता प्रकृति के संवाद को सुन सकने का अवसर तीर्थ सेवन में ही मिलता है। वेद क्या है इस पर ऋषि कहते हैं प्रकृति ही वेद है। जो प्रकृति के संवाद को सुनता ममझता देखता है वही मन्वदश शषि है। प्रकृति अनन्त है अत वेद भी अनन्त है। इसी कारण प्रकृति के घनीभूत रूपी भी अनन्त पद हो जाते हैं। यही नीचे का यथार्थ रहस्य है।
नदी नीचे हैं पर्वत नीर्थ हैं जहादियों का संगम है यह तीर्थ है। जहा सुरम्य और मधन पृष्ठों मे युक्त तट वाले जलाशय, वापी कृप नहा है वे नीचे हैं। प्रकृति के कोड़ में जहां लोक कल्याण कामनारत तपस्वियों ने तप किया है वह पुण्यस्यली तीर्थ है। शास्त्रों में है कि देवमन्दिर तो जलाशय तथा उपवन, चारिकायुक्त हो। उनकी पृष्ठभूमि में प्रकृति की छटा विराजमान हो। सम्यत्र लोग मन्दिरों को वाटिका उपवन, जलाशय में शोभित करें। यही तीर्थ का स्वरूप है। अर्थान्तरकृति की सुरम्य छटा हो, साथ ही वहां कार्य दान दया तथा परोपकार जन-यज्ञ होता हो यह तीर्थ है। स्कन्दपुराण के अनुशीलन से शात होता है कि उस समय सर्व ऐसे उत्तम प्रकृतीचे थे। लेकिन आजको स्थिति है.
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