यह संसार क्या है और वर्तमान में उपलब्ध संसार की रचना कैसे हुई? यह अपने आप बन गया है या इससे भिन्न किसी सत्ता के द्वारा इसकी रचना हुई है? क्या यह सदा से ऐसा ही है अथवा परिवर्तनशील होने के कारण बनता बिगड़ता रहता है? यदि परिवर्तनशील है तो यह परिवर्तन स्वतः होता रहता है या ऐसा किसी नियम के आधीन होता है? नियम के आधीन होता है तो इसका नियामक कौन है?
इस विषय में दो विचारधाराएं उभर कर आई हैं, एक विचारधारा के अनुसार सृष्टि की रचना किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए एक सर्वोच्च चेतन सत्ता के द्वारा नियम पूर्वक हुई है और दूसरी विचारधारा विकासवाद के नाम से जानी जाती है, चार्ल्स डार्विन को इसका प्रवर्तक माना जाता है।
महर्षि दयानंद ने रुड़की में डार्विन का युक्तिपूर्वक खंडन किया था जिसे संक्षेप रूप से महर्षि दयानंद की जीवनी चरित्र में दिया गया है।
इस पुस्तक में उसे विस्तार से दिया जा रहा है। विकासवाद जैसी कल्पना को यूरोप छोड़ चुका है, परंतु भारत में अभी तक इस की लकीर पीटी जा रही है।
ऐसी विज्ञान-विस्तार धारणा के उन्मूलन की दृष्टि से यह पुस्तक लिखी गई है। सुधीजन स्वतंत्र बुद्धि से इसका अध्ययन करेंगे तो निश्चय ही उनके विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन होगा।
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