विश्व के विद्वानों ने एकमत से स्वीकार किया है कि वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ है तथा उनमें रोग, कीटाणु, ओषधियों और मन्त्रों का वर्णन पर्याप्त माश में उपलब्ध है, अत एव चरक, सुश्रुत प्रभृति आचार्यों ने आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपाङ्ग माना है-इह खल्वायुर्वेदो नामोपाङ्गमयर्ववेदस्यानुत्पाद्यैव प्रजाः श्रलोकशतसहस्रमध्यायसहस्रकृतवान् स्वयम्भू (सु.अ. १). ‘चतुर्गानुक्सामयजुरयर्ववेदानामथर्ववेद भक्तिरादेश्या’ (च. सू. अ. ३०)। यद्यपि आयुर्वेद मानव-सृष्टि के प्रारम्भ से ही मादुर्भूत हुआ माना जाता है किन्तु यूरोपीय इतिहासकारों ने आज से तीन-चार हजार वर्ष के पूर्व में भारत के अन्दर चिकित्साराब समुत्रत था, ऐसा स्वीकृत किया है क्योंकि उनके पास यहाँ के पूर्व के ऐतिहासिक तत्व उपलब्ध नहीं है। किन्तु अब अनुसन्मान हुए हैं उनसे भारतीय संस्कृति को प्राचीनता मानी हुई परिधि से भी अधिक पुरातन सिद्ध हो रही है। मोहडोदरों को खुदां ने पाक्षात्य ऐतिहासिक पण्डितों का मत परिवर्तन कर दिया है। अन्य भी शोध हो रहे हैं जिनसे प्राचीन भारत का गौरव विशेषत प्रकाशित होने की संभावना है। भारत से हो इस विद्या का प्रसार यूनान और यूरोप आदि पाक्षात्य देशों में हुआ, यह भी ऐतिहासिक तथ्य है।
आयुर्वेद पूर्व में एक लक्ष लोकों में था किन्तु बाद में अनिवेशादि आचार्यों ने इसे अनेक अङ्ग या अष्टाङ्गों में विपक किया। ‘आयुर्वेदः श्लोकलक्षेण पूर्व ब्राह्यस्त्यासीदनिवेशादयस्तु । कृच्छ्वादयप्राप्तपाराः सुतन्वास्तस्यैकैकं नैकधाऽङ्गानि ते और इसके अनन्तर आयुर्वेद का क्रमशः विकाश हुआ और उसमें महर्षि पतञ्जलि ने मानसशुद्धि, शब्दशुद्धि तथा शरीरशुद्धि के ऊपर विशेष अनुसन्धान करके इस तथ्य को अङ्गीकृत किया कि जबतक मानसिक, शाब्दिक तथा शारीरिक शुद्धि हो तब तक मानव समाज का दयार्य स्वास्थ्यरक्षण नहीं हो सकता है। अत एवं उन्होंने मानसशुद्धि के लिये योगशास्त्र का प्रचार किया, शब्दशुद्धि के लिये पातञ्जल महाभाष्य बनाया तया शरीरशुद्धि के लिए आयुर्वेद शास्त्र का विशेष प्रचार किया। जैसा कि कैयट ने पातकृत महाभाष्य को टीका के मङ्गलाचरण में लिखा है-
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरंस्य तु वैद्यकेन ।
योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राश्चलिरानतोऽस्मि ।।
प्राचीनकाल में इन अष्टाव्रों के पृयक् पृथक् अनेक तन्त्र थे किन्तु दैवदुर्विनाक से उन तन्त्रों का इस समय नामशेष रह गया है। उन तन्त्रों में चरक द्वारा प्रतिसंस्कृत तथा कायचिकित्सा-प्रधान अद्विवेश तन्त्र (चरकसंहिता) एवं शल्य- विकिন্দোমান सुनुततन्त्र हो पूर्णरूप से प्राप्त है। यद्यपि भेलतन्त्र तया वृद्धजीवकीयतन्त्र (काश्यपसंहिता) भी पूज्य यादव जी की कृपा से प्रकाशित हो गये हैं’ किन्तु वे भी अनेक स्थलों में खण्डित होते हुए भी प्राच्य गौरव के महत्वपूर्ण प्रदर्शक है। कायचिकि चरक तथा शत्य-शालाक्य चिकित्सार्थ सुश्रुत का अध्यन प्राचीनकाल से प्रचलित है जैसा कि वागभट ने भी लिखा है- ऋषिप्रणीते प्रीति क्षेन्मुक्त्वा चरकसुश्रुतौ । भेडा (ला) द्याः किं न पठ्यन्ते तस्माद् प्राद्धं सुभाषितम् । श्रीहर्ष कवि के समय में भी चरक-सुश्रुत को पड़े हुए वैध ही सुवैद्य कहलाते थे ऐसा माना है-
कन्यान्तः पुरबाधनाय यदधीकारान्न दोषा नृपं, द्वौ मन्त्रिप्रवरच तुल्यमगदङ्कार छ तावूचतुः। देवाकर्णय सुश्रुतेन चरकस्योक्त्तेन जानेऽखिलं, स्यादस्या नलदं विना न दलने तापस्य कोऽपि इनः ।।
(नैषधचरित सर्व ४) वाग्भट के समय में तो यहां तक माना जाता था कि यदि चरक का हो अध्ययन किया जाय तो सुश्रुत में आये हुर रोगों का नाममात्र भी ज्ञान नहीं हो सकता तया यदि केवल सुश्रुत का ही अध्ययन किया जाय तो रोगों के प्रतीकार की प्रक्रिया
का ज्ञान असम्भव है। इसलिये चरक तथा सुश्रुत दोनों का हो अध्ययन आवश्यक है-
यदि चरकमधीते तद् ध्रुवं सुश्रुतादि- प्रणिगदितगदानां नाममात्रेऽपि श्राह्मः । अथ घरकविहीनः प्रक्रियायामखिन्नः, किमिव खलु करोतु व्याधितानां वराकः ।।
Reviews
There are no reviews yet.