इस संसार में जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख-दुःख का सिलसिला चलता रहता है । मनुष्य अपनी साधारण दृष्टि से जिसे सुख समझता है वह भी क्षणिक, दुःखमिश्रित एवं दुःखरूप ही सिद्ध होता है। इसलिए विचारशील व्यक्ति दुःख की आंशिक एवं आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। ‘दुःख की सर्वथा निवृत्ति (मोक्ष) कैसे हो इसी का उपाय या मार्ग बताना दर्शनशास्त्र का लक्ष्य है । दार्शनिक रुचि रखनेवाले महानुभाव जानते हैं, कि वैदिक दर्शन मोक्ष को ही परमपुरुषार्थ मानकर प्रवृत्त हुए हैं। परन्तु इस परमलक्ष्य की प्राप्ति के लिए अध्यात्म और अधिभूत दोनों ही विज्ञान अपेक्षित हैं। हमारे वैदिक दर्शनों में तत्त्वज्ञान के लिए दोनों विज्ञानों का उल्लेख हुआ है। किसी दर्शन में मुख्यरूप से अध्यात्म-विषय का विवेचन किया गया है और किसी में अधिभूत का ।
प्रकृत वैशेषिक दर्शन में उन पदार्थों का विवेचन है, जिनके मध्य हमारा जीवन पनपता, फलता-फूलता है। वैशेषिक दर्शन उस समस्त अर्थ-तत्त्व को छह वर्गों में विभाजित करके उन्हीं का मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है। इस विवेचन के मुख्य-विषय अधिभूत-तत्त्व हैं, जिनको मनुष्य अपने चारों ओर फैला हुआ पाता है । आंशिक रूप से इसमें अध्यात्म भी आ गया है। दूसरी ओर न्यायदर्शन में वस्तुतत्त्व को जानने समझने की प्रक्रिया का विस्तृत प्रतिपादन है। वह वस्तुतत्त्व चाहे अध्यात्म हो या अधिभूत, वह प्रक्रिया है-प्रमाण । न्यायदर्शन में विस्तार से ‘प्रमाण’ का सर्वाङ्गीण प्रतिपादन किया है। अन्य जो कुछ है, वह प्रसंगोपयोगी है।
ये प्रमाण और प्रमेय दोनों एक दूसरे के पूरक (= सहयोगी) हैं; क्योंकि प्रमाण प्रमेयों को जानने के साधन हैं और प्रमेय पदार्थ प्रमाणों के साध्य (= जानने के विषय) हैं।
अर्थात् न्यायदर्शन में मुख्यरूप से प्रमाणों का विवेचन है और वैशषिक- दर्शन में मुख्यरूप से प्रमेय पदार्थों का विवेचन किया गया है।
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