प्राकृतिक सम्पदायें प्राणियों के हितार्थ पृथ्वी पर प्रादूर्भूत हुई । अग्नि, जल, पृथी, वायु और आकाश ये प्राकृतिक सम्पदायें प्रत्येक मानव व प्राणियों में भी विद्यमान हैं । प्रकृति का बाह्यस्वरूप, शरीर में विद्यमान प्रकृति के क्षीण होने पर प्रयुक्त होती हैं । प्रकृति से ही वात-पित्त एवं कफ की निष्पत्ति होती है जो पृथ्वी पर उत्पन्न वनस्पतियों के सेवन से नियंत्रित की जाती है आज मानव वनस्पतियों की शरीर के लिये उपयोगिता को भूलता जा रहा है परिणामस्वरूप मँहगी चिकित्सा में अपव्यय करने को विवश है। आयुर्वेद का वनस्पति विभाग ही सुलभ एवं सस्ता है जिसका सभी लाभ उठा सकते है, किन्तु वनस्पतियों के जानकारों का उत्तरोत्तर अभाव होते जा रहा है और नीम-हकीमों की भरमार होती जा रही है, इस स्थिति में 'सचित्र वनौषधि संग्रह' मार्गदर्शक गुरु के रूप में कार्य करेगा।
वनस्पतियों की पहचान उसके स्वरूप, गुणधर्म आदि से ही सम्भव है । वनस्पतियाँ समयानुकूल विलुप्त होती जाती हैं तथा कुछ नई तैयार हो जाती हैं । चरक, भावप्रकाश आदि ग्रन्थों में भी ऐसे ही दर्शन होते हैं । जो वनस्पति एक ग्रन्थ में वर्णित है वह दूसरे ग्रन्थ में नहीं होती है । आम वनस्पतियाँ सभी ग्रन्थों में समाहित हैं । इस प्रकार विलुप्त और नवीनता का क्रम जारी रहता है। प्राच्य ग्रन्थों में वर्णित वनस्पतियाँ एवं उनका प्रयोग उस समय के मान से पर्याप्त है किन्तु उस पर आगे भी शोध कार्य की आवश्यकता है, यही प्रयास इस ग्रन्थ में किया गया है। ।
आयुर्वेद महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों के लिये इस ग्रन्थ में रासायनिक संगठनों, पत्तों की बनावट, फूल, फल आदि का विवरण दिया गया है इससे वनस्पतियों की शीघ्र पहचान हो जाती है। भ्रम निवारण के लिये वनस्पतियों के रंगीन चित्र सहायक सिद्ध होंगे। इस ग्रन्थ से न केवल विद्यार्थी अपितु वैद्य एवं आयुर्वेद व बनस्पदि प्रेमी भी लाभान्वित होंगे । वनस्पतियों का प्रा कैसा किया जाए यह जन-सामान्यों के लिये एसमस्या है, इस समस्या का निवारण ग्रन्थ अन्त में सफल चिकित्सा भाग दिया गया है। इसका लाभ पाठक लेंगे ऐसा विश्वास है।
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