विश्वविद्यालयों में पढ़ायी जाने वाली पुस्तकों में वेद एवं वेद सम्बन्धी अनेक भ्रान्तिमूलक विषयों एवं अटकलपच्चू बातों ने लेखक के ध्यान को आकृष्ट किया। पाश्चात्य एवं उनकी नकल करने में अपने आप को गौरवान्वित समझने वाले भारतीय लोगों ने जिस वेद को ईश्वरीय ज्ञान, अपौरुषेय एवं सत्य विद्या की पुस्तक आदि-राजा मनु से लेकर कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनि, पतंजलि, व्यास आदि भारत के दार्शनिकों ने स्वीकार किया था, उसी वेद को चरवाहों का गीत एवं असभ्य बर्बर आर्य जाति की सूक्ति सहिता तक कह डाला गया।
उन्होंने ऐसी धारणा क्यों बनायी? इसी का उत्तर देने के लिए लेखक ने प्रबल आवश्यकता का अनुभव किया तथा उन पाश्चात्य एवं भारतीय लेखकों द्वारा वेद पर किये जाने वाले आक्षेपों के समाधान करने के सम्बन्ध में कुछ लिखने का निश्चय किया। उसी का परिणाम है यह पुस्तक, आईए जाने की सच क्या है?
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