समस्त भारतीयों में वेदों के प्रति अत्यन्त श्रद्धा का भाव रहता है। उनके लिए वेद आस्था के केन्द्रबिन्दु हैं और प्रामाणिकता के सर्वोच्च शिखर भी हैं। किन्तु क्षोभ का विषय है कि सामान्य लोगों के मध्य इनके विषय में जागरूकता का अत्यन्त अभाव है। वेदों के प्रति सामान्यजनों में जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता भी है, क्योंकि वेद न केवल अध्यात्म विद्या के ग्रन्थ है, अपितु इसमें जीवन व समाज के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति के लिए अनिवार्य दिशा-निर्देश के सूत्र भी हैं।
पुरातनकालीन आर्यावर्त से लेकर महाभारतकाल तक विश्व के इस भूभाग में वेदों के पठन-पाठन व अनुसरण की परम्परा अबाधरूप से चलती रही अर्थात् क्षात्रबल, ब्राह्मतेज का अनुगामी रहा। किन्तु तत्पश्चात् राजनैतिक विक्षोभ से उत्पन्न अस्थिर वातावरण में व्यवस्थायें छिन्न-भिन्न होने से वेदों के अनुशीलन में बाधाएँ उपस्थित हो गयीं। अनेक सहस्राब्दियों के बाद, एक अत्यन्त तेजस्वी व तपस्वी महर्षि दयानन्द ने वेदों के उद्धार का संकल्प लेकर, अविद्या के गहन अन्धकार में डूबे भारतवर्ष में वेदों के ज्ञान का प्रकाश फैलाने का अतुलनीय कार्य किया।
आधुनिक वेदव्यास के कार्य को अग्रसारित करने का दायित्व उनके उत्तराधिकारी शिष्यों ने सफलतापूर्वक वहन किया। किन्तु वेद-विद्या के प्रचार- प्रसार का दायित्व प्रत्येक पीढ़ी को वहन करना होता है, इसलिए वर्तमान पीढ़ी को भी वेदों के प्रचार-प्रसार का दायित्व उठाना होगा। इसमें शिथिलता या प्रमाद का अवकाश न रहे, इसीलिए महर्षि दयानन्द ने संस्था के नियम में ही वेदों के पठन-पाठन का प्रावधान कर दिया था।
वेद सृष्टि मानव सभ्यता व संस्कृति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। साहित्य की दृष्टि से भी वेदों की गणना सर्वोत्कृष्ट कोटि की मानी जाती है। यद्यपि काल- प्रवाह में इनके पठन-पाठन का प्रचलन प्रायः सम्पूर्ण विश्व में लुप्त हो चुका है, किन्तु भारतवासियों एवं विश्व में अन्यान्य देशों में रहनेवाले भारतवंशियों में इसकी ख्याति अभी शेष है। भारतवर्ष में रहनेवाले अधिकांश लोग जो स्वयं को सनातन धर्म के अनुयायी मानते हैं, वे सभी वेदों के प्रति सर्वोच्च श्रद्धा व अगाध निष्ठा रखते हैं। वेदों के प्रति श्रद्धा की पराकाष्ठा यह है कि वेद-अनभिज्ञ लोग भी नैतिकता व धर्म सम्बन्धी विषय में अपने के पक्ष को पुष्ट करने के लिए वेद-सम्मत होने का ही तर्क देते हैं।’ वेद-पुराण’ सामान्य बोल-चाल की भाषा में भी बहुश्रुत शब्द है। यह आश्चर्य का विषय है कि वेदों को इतनी लोकप्रियता व प्रसिद्धि होने के बाद भी लोगों में इसके पठन-पाठन के प्रति रूचि का अत्यन्त अभाव है। सामान्यजनों में वेदों के प्रति अरुचि/ अनभिज्ञता का अभाव होने के कारण तो विवेचना का विषय है, किन्तु वेदों की महत्ता व उपादेयता तो निर्विवाद है।
मेरे विचार से, किसी वस्तु का महत्त्व उसकी उपादेयता (उपयोगिता) से निर्धारित होता है। किसी वस्तु का ज्ञान होना उसके उपयोगी होने की पूर्वापेक्षा होती है। यदि किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होगा, तब उसके उपयोग का तो प्रश्न ही नहीं उठेगा। यद्यपि सामान्य से लेकर विशेषज्ञता तक ज्ञान का स्तर बहुविध होता है। मनुष्य का प्रत्येक विषय में विशेषज्ञ होना तो असम्भव है, क्योंकि संसार में व्यवहार योग्य विषयों की संख्या अनगिनत है। सामान्यतः मनुष्य अपने रूचि के कुछ विषयों का पारंगत होता है व अनेक अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान रखता है। विषय के चयन में रूचि की विशेष भूमिका होती है, अर्थात् मनुष्य अपने संस्कारों के प्रभाव के कारण उपलब्ध अन्यान्य विषयों में से किसी एक या कुछ का चयन कर लेता है। स्वाभाविक है कि जिस विषय में उसकी रूचि उत्पन्न हुई है, उस विषय के संस्कार उसके चित्त में उपस्थित रहे होंगे, क्योंकि संस्कार तो भोग (ज्ञान) से ही उत्पन्न होते हैं। संस्कारों की भोग से उत्पत्ति सिद्ध करती है
वेद क्या हैं?
सृष्टि के आरम्भ में जब इस पृथ्वी पर मनुष्यों की प्रथमवार उत्पत्ति हुई, उस समय परम कृपालु, आप्तों के आप्त, गुरुओं के गुरु, सर्वविद्यानिधान परमेश्वर ने वाणी व ज्ञान के जिज्ञासु ऋषियों के हृदयों में प्रेरणा की। संसार में ज्ञान व वाणी का यही प्रथम प्रकाश है, जिसे वेद कहते है। पूर्व कल्पकृत सत्कृत्यों के कारण जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ व सुसंस्कारयुक्त थे और जिनके हृदय में ईश्वराज्ञा के प्रचार की प्रबल आकांक्षा थी, उनके हृदय में परब्रह्म ने वेदों की प्रेरणा की, जिसकी शुभ्र ज्योति को इन महापुरुषों ने सामान्यजनों के कल्याणार्थ सम्पूर्ण जगत् में प्रकाशित किया।
Reviews
There are no reviews yet.