वेदार्थ-विज्ञानम्
वैदिक पदों का रहस्यमय विज्ञान
महर्षि यास्क विरचित निरुक्त की वैज्ञानिक व्याख्या
सम्पादकीय
हम सब यह मानते हैं कि इस संसार में एक ऐसी चेतन सत्ता अवश्य विद्यमान है, जो अत्यन्त सूक्ष्म कणों से लेकर विशाल गैलेक्सियों तक का निर्माण करती व उन्हें नियन्त्रित भी कर रही है। इस चेतन सत्ता का नाम ओम् है, जिसके ईश्वर, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, गणेश आदि अनेक नाम हैं। जो ऐसा नहीं मानते, उन्हें इस ग्रन्थ को पढ़ने से पूर्व आदरणीय डॉ. भूप सिंह जी की पुस्तक ‘वैदिक संस्कृति की वैज्ञानिकता‘ को पढ़ना चाहिए।
मानव सृष्टि के आदि में ब्रह्माण्ड में विद्यमान वेदमन्त्र रूपी सूक्ष्म कम्पनों को ग्रहण करने की क्षमता चार मनुष्यों में थी और उन्होंने उन तरंगों को ग्रहण किया। ऐसे महान् ऋषियों को परमात्मा ने स्वयं उन वेदमन्त्रों रूपी सूक्ष्म कम्पनों का अर्थ जनाया। परमात्मा का ज्ञान अनन्त है और मनुष्य का ज्ञान सीमित है। जितना ज्ञान वे चार ऋषि ग्रहण कर सकते थे, उन्होंने ग्रहण कर लिया। उस समय धरती पर वेद के ज्ञान-विज्ञान का प्रकाश था। जहाँ तक मनुष्य जाति की बात है, तो यह ज्ञान इस मानव जाति का सबसे पवित्र और उच्चस्तरीय ज्ञान था, ज्ञान की इससे उच्च स्थिति फिर कभी नहीं हुई, क्योंकि इसको प्रदान वाला वही था, जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की। वेदों के ज्ञान रूपी प्रकाश से सम्पूर्ण पृथ्वी पर स्वर्ग जैसा वातावरण था, परन्तु मनुष्य के अल्पज्ञ होने के कारण मानव की प्रथम पीढ़ी से वर्तमान तक ज्ञान का निरन्तर ह्रास होता चला गया। इस कारण वेदों की व्याख्या करने के लिए ऋषियों को समय-समय पर अनेक ग्रन्थों की रचना करनी पड़ी।
वेदों को समझाने के लिए कुछ ऋषियों ने नाना प्रकार से वेद मन्त्रों से छाँट-छाँट कर कुछ महत्त्वपूर्ण वैदिक पदों का संग्रह करना प्रारम्भ किया। ऐसा ही एक संग्रह वर्तमान में उपलब्ध निघण्टु है और इसका संग्रह करने वाले हैं- महर्षि यास्क। पदों के संग्रह को निघण्टु क्यों कहा गया ? इसको स्वयं महर्षि यास्क स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ये पद निश्चयपूर्वक अपने वाच्यरूप पदार्थ का यथार्थ बोध कराने में सक्षम होते हैं। जब इन पदों के द्वारा उन पदार्थों का निश्चयात्मक बोध हो जाता है, तब इसके द्वारा वैदिक मन्त्रों के यथार्थ एवं छन्द रश्मियों के स्वरूप का बोध होकर सृष्टि का भी बोध होने लगता है।
वैदिक पदों का संग्रह करने के पश्चात् महर्षि यास्क ने इन पदों की व्याख्या के रूप में ‘निरुक्त’ नामक ग्रन्थ की रचना की। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी निरुक्त को वेदों को समझने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना है और उन्होंने अपना वेदभाष्य भी निरुक्त को आधार बनाकर ही किया है। वर्तमान की बात करें, तो निरुक्त का एक भी भाष्य ऐसा नहीं है, जो स्वयं निरुक्त के वास्तविक स्वरूप को संसार के सामने रख सके, निरुक्त के द्वारा वेदों को समझना तो दूर की बात है। कितने शोक का विषय है कि निरुक्त पर किये अब तक के भाष्यों में अश्लीलता, पशुबलि, नरबलि, मांसाहार, नारी-शोषण, छुआछूत एवं रंगभेद जैसे पापों का समावेश है और ऐसे भाष्यों को ही अनेक गुरुकुलों एवं विश्व- विद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। ऐसे भाष्यों के कारण ही हमारी संस्कृति, ऋषि-मुनियों का सम्मान, वेद का ज्ञान-विज्ञान आदि, जो हमारे गौरव थे, मिट्टी में मिल चुके हैं।
यहाँ हम निरुक्त व व्याकरण दोनों ही शास्त्रों के विषय में कुछ बताना आवश्यक समझते हैं। निरुक्त व व्याकरण दोनों ही शास्त्र पदों का अर्थ जानने में सहायक हैं, लेकिन दोनों ही शास्त्रों में मौलिक अन्तर है। जहाँ व्याकरण शास्त्र शब्द प्रधान होता है, वहीं निरुक्त शास्त्र अर्थ प्रधान होता है। व्याकरण की व्युत्पत्ति प्रक्रिया किसी पद का निर्माण किस प्रकृति व प्रत्यय से हुआ है और तदनुसार उसका अर्थ क्या है, यह बतलाती है। उधर निरुक्त की निर्वचन प्रक्रिया किसी पद के अर्थ की गहराइयों में जाकर यह दर्शाती है कि इस अर्थ वाले पद का निर्माण कैसे हुआ है? ऐसा होते हुए भी दोनों प्रक्रियाओं में परस्पर निकटता भी होती है, फिर भी व्युत्पत्ति प्रक्रिया की अपेक्षा निर्वचन प्रक्रिया अधिक व्यापक रूप से उस पद के रहस्य को खोलकर उस पद के वाच्यरूप पदार्थ के स्वरूप का उद्घाटन करती है। इस कारण वेदार्थ करने वाला केवल व्याकरण शास्त्र के बल पर शुद्ध वेदार्थ में कदापि समर्थ नहीं हो सकता, उसे निरुक्त के निर्वचन विज्ञान को जानना ही होगा।
परमपिता परमात्मा ने मेरे धर्मपिता व गुरुवर पूज्य आचार्य अग्निव्रत के रूप में हमें पुनः एक अवसर दिया है। राजस्थान के एक छोटे से न्यास में रहकर आचार्य श्री वेदों का वास्तविक स्वरूप संसार के समक्ष रखने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। इस प्रयास में पहले आपने ऋग्वेद को समझाने वाले उसके ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण, जिसे लगभग सात हजार साल पुराना माना जाता है, का वैज्ञानिक (वस्तुतः वास्तविक) भाष्य ‘वेदविज्ञान- आलोकः’ के रूप में विश्व में पहली बार किया है। यह ग्रन्थ सृष्टि विज्ञान के अत्यन्त गम्भीर व अनसुलझे रहस्यों का उद्घाटन करता है, जिनके बारे में विज्ञान की वर्तमान पद्धति से सैकड़ों वर्षों में भी नहीं जाना जा सकेगा।
इसके पश्चात् आचार्य श्री ने महर्षि यास्क विरचित निरुक्त का वैज्ञानिक भाष्य इस ग्रन्थ ‘वेदार्थ-विज्ञानम्’ के रूप में संसार के सामने प्रस्तुत कर दिया है। इस ग्रन्थ में आचार्य श्री ने सैकड़ों मन्त्रों का भाष्य किया, किसी मन्त्र का एक, किसी का दो, तो किसी का तीन प्रकार का भी भाष्य किया है। उदाहरणार्थ ‘विश्वानि देव…’ मन्त्र का १६ प्रकार का भाष्य कर आचार्य श्री ने यह सिद्ध किया है कि किसी भी वेद मन्त्र के अनेक प्रकार के भाष्य सम्भव हैं, जैसा कि तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१०.११ में कहा है- ‘अनन्ता वै वेदाः’ अर्थात् वेदों में अनन्त ज्ञान है। इस शास्त्र की महत्ता एवं वैज्ञानिकता का भी सहज अनुमान इसी बात से हो जाता है कि ‘निघण्टु’ पद में भी अद्भुत विज्ञान छिपा हुआ है, जिसे पाठक यथास्थान पढ़ सकते हैं। वैदिक रश्मि विज्ञान पर सन्देह करने वाले विद्वानों को इस ग्रन्थ को पढ़ने से यह विदित होगा कि वैदिक रश्मि विज्ञान न केवल ‘वेदविज्ञान आलोकः’ में सुसंगत है, अपितु निरुक्त के इस भाष्य में भी उसी का सुसंगत और अधिक गम्भीर विस्तार है।
इस ग्रन्थ से यह सिद्ध होता है कि वेद ब्रह्माण्डीय ग्रन्थ है, वैदिक भाषा ब्रह्माण्ड की भाषा है और वेदमन्त्र परमात्मा द्वारा इस ब्रह्माण्ड में हो रहा वैज्ञानिक संगीत है। यह वैदिक भाषा संस्कृत की ही विशेषता है कि उसके पद ब्रह्माण्ड में सर्वत्र विद्यमान हैं। सृष्टि के हर पदार्थ से उनका नित्य और अनिवार्य सम्बन्ध है, यह सब आप इस ग्रन्थ को पढ़कर अच्छी प्रकार समझ जायेंगे। ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य ‘वेदविज्ञान-आलोकः’ में हमने जाना था कि वेदमन्त्रों से सृष्टि कैसे निर्मित व संचालित हो रही है, इस ग्रन्थ में हमें यह जानने को मिलेगा कि वेदमन्त्र के एक-एक पद में कितना विज्ञान भरा पड़ा है। जहाँ इस ग्रन्थ में सूक्ष्म रश्मियों वा तरंगों का विस्तृत विज्ञान है, वहीं सूर्य के विषय में संसार के किसी भी अन्य ग्रन्थ वा सूर्य पर किये जा विभिन्न प्रकार के अनुसंधानों से अधिक विज्ञान इस ग्रन्थ में पाठकों को पढ़ने हेतु मिलेगा।
सर्वप्रथम यह ग्रन्थ गुरुकुल के ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों एवं आचार्यों के लिए वरदान सिद्ध होगा। इस ग्रन्थ की सहायता से वेदों एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के गम्भीर वैज्ञानिक रहस्य उद्घाटित हो सकेंगे, जो निरुक्त के अन्य किसी भी भाष्य द्वारा सम्भव नहीं है। इससे गुरुकुलों के छात्र-छात्राएँ वर्तमान वैज्ञानिक युग की चुनौतियों का न केवल सामना करने में सक्षम होंगे, अपितु उन्हें वेदों के वैज्ञानिक गौरव का भी सुखद अनुभव हो सकेगा।
इसके साथ ही आधुनिक शिक्षा में पले-बढ़े वे विद्वान्, जिन्हें वेदमन्त्रों, ब्राह्मण ग्रन्थों के आख्यानों अथवा निरुक्त के निर्वचनों में हास्यास्पद वा मूर्खतापूर्ण बातें ही दृष्टिगोचर होती हैं, उन्हें अपना दृष्टिकोण बदलने के लिए विवश होना पड़ेगा तथा वे भी वेदों एवं ऋषियों के महान् विज्ञान का आनन्द ले सकेंगे। इस ग्रन्थ को पढ़कर आधुनिक वैज्ञानिकों को सृष्टि के अनेक क्षेत्रों में अनुसंधान हेतु पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकेगी। यह ग्रन्थ हमें हमारे मूल वेद और परमपिता परमात्मा से जोड़ता है, इसलिए यह ग्रन्थ अति विशिष्ट हो जाता है, क्योंकि यह एक सिद्धान्त है कि जो अपने मूल से कट जाता है, वह नष्ट हो जाता है और वर्तमान में यह हो भी रहा है। वेद और ईश्वर से दूर जाता यह संसार निरन्तर विनाश की ओर बढ़ता जा रहा है।
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