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विवेक चूड़ामणि

Vivek Chudamani

350.00

Subject : vivek chudamani shankar ka Advait darshan
Edition : 2006
Publishing Year : 2006
SKU # : 37079-PP00-0E
ISBN : 8171102905
Packing : HardCover
Pages : 259
Dimensions : 14X22X6
Weight : 415
Binding : HardCover
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शंकर के अद्वैत दर्शन से न केवल भारतवर्ष, प्रत्युत् सम्पूर्ण विश्व अनुप्राणित व चमत्कृत् है एवं सतत् दिशाबोधपरक मार्गदर्शन प्राप्त कर रहा है। वैश्वीकरण, अत्याधुनिक भौतिकतावादी अन्धी दौड़, हिंसा, आतंक, युद्ध व संघर्ष की भयावहता, अमानुषिक पाशविकता का जहर, विश्वग्राम की संकल्पना का ‘दिवा स्वप्न’ आदि के अन्धानुकरण के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शंकर का दर्शन सम्पूर्ण मानव जाति तथा मानवता के उद्धार के लिए ‘संजीवनी तुल्य पाथेय’ है। विश्व के आदि ग्रन्थ वैदिक संहिताओं एवं ओपनिषदिक श्रुतियों में समन्वित अद्वैत के सार को सार्वजनीन करते हुए अपनी दूरदर्शी वैज्ञानिकता और तर्कपूर्ण युक्तियों से दार्शनिक जगत् में एक महनीय व शुभ कार्य सम्पन्न किया- “भारतीय अस्मिता व राष्ट्रीय एकता के सूत्रधार एवं अध्यात्मज्योतिपुंज आदि गुरु शंकराचार्य” ने।

जगद् गुरु शंकराचार्य ने आत्मा, कर्म, माया, ब्रह्म व जीवन्मुक्ति इत्यादि अत्यन्त गूढ़ व रहस्मय विषयों पर सम्यक् तार्किक विवेचन व विमर्श कर सरलतम सिद्धान्त रूप में भारतीय दर्शन के प्राण रूप अद्वैत को सर्वोच्च प्रतिष्ठित किया। शंकर की ऋतम्भरा प्रज्ञा से उद्भूत सहज व सरस शैली में अद्वैत वेदान्त की अद्भुत एवं समीचीन व्याख्या मनीषी विद्वत्समुदाय में अधुनातन समादरणीय व गौरवास्पद है। शंकर ने न केवल मानवता के उद्धार व सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए धर्म, जाति, देश, काल आदि से उपर उठ कर निर्लिप्तता का सन्देश दिया है, अपितु संकीर्ण मनुष्य की चेतना शक्ति के ऊर्ध्वगामी उद्बोधन की अलख भी जगायी है। अद्वैत व अभेद दर्शन की यह व्यापकता ही शंकर के दर्शन को वर्तमान में अति प्रासंगिक, समसामयिक, उपादेय, सार्वकालिक व यथार्थ की कसौटी पर सार्थक करती है। आध्यात्मिक एवं आत्मिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने वाला अद्वैत चिन्तन मानव मानव में एकता, समत्व, सौहार्द्र, सौमनस्य, प्रेम, शान्ति, विश्वबन्धुत्व व वसुधैव कुटुम्बकम् का सुन्दर व पुनीत सन्देश देता है। यह नैतिक चिन्तनात्मक सन्देश आज के युग में विश्व मानवता के कल्याण, विश्व शान्ति व सुखद मानवीय मूल्यों की स्थापना के पवित्र उद्देश्य की पूर्ति हेतु मानव मात्र द्वारा अनुकरणीय है। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” के व्यापक भाव के समवेतत्व समाहार के साथ “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रहौव नाऽपरः” का पावन उद्घोष कर शंकर ने माया को व्यावहारिक जगत् की सत्ता एवं परम् ब्रह्म के मध्य एक सेतु के रूप में प्रतिपादित किया। शंकर ने माया को महज सांसारिक विषयों की कल्पना से दूर एक साधन के रूप में प्रस्तुत किया है, जो साधारण मनुष्य की बुद्धि से दुर्बोध्य, नितान्त अद्भुत एवं अकल्पनीय है। ‘माया’ मात्र एक संयोजक का ही कार्य नहीं करती, वरन् माया की सत्ता को मिथ्या अर्थात् सदसदनिर्वचनीय ही सही, स्वीकार करते हुए शंकर ने विशद् रूप से माया का लक्षण, स्वरूप, जगत्कारणता, बन्ध निरूपण एवं अध्यास निवृत्ति जैसे क्लिष्ट बिन्दुओं में विश्लेषित करने का सुन्दर प्रयास किया है।

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