ग्रन्थ का नाम – व्यास शिक्षा
अनुवादक का नाम – डॉ. जमुना पाठक
स्वर वैदिक भाषा की प्रमुख विशेषता है। स्वरों के परिवर्तन से मन्त्रों के अभीष्टार्थ में परिवर्तन हो जाता है। अतः अभीष्टार्थ की प्राप्ति के लिए अभीष्ट स्वर में मन्त्रों का उच्चारण अपेक्षित है। इस तथ्य को ध्यान रखते हुए शिक्षाकारों ने अपनी शिक्षाओं में स्वर विषयक विधान किया है। स्वर प्रमुख रुप से चार प्रकार के होते हैं – उदात्त, अनुदात्त, स्वरित और प्रचय। इन स्वर विभेदों का लक्षण प्रायः सभी शिक्षाओं में वर्णित है। स्वरित स्वर के सात भेद है। इन भेदों को सलक्षण प्रस्तुत किया जाता है।
शिक्षा ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य संहिताओं के उच्चारण और पाठों की सुरक्षा करना है। सम्प्रति आज अनेकों शिक्षाऐं प्रचलित है। इनमें व्यास शिक्षा भी एक है।
व्यासशिक्षा कृष्णयजुर्वेद से सम्बन्धित शिक्षा है जो अट्ठाइस प्रकरणों में विभक्त है। इस शिक्षा के प्रथम प्रकरण में शिक्षा में प्रयुक्त परिभाषिक शब्दों के सम्यक् अवबोधन के लिए संज्ञाओं का विधान किया गया है। ग्रन्थकार अपने ग्रन्थ की लघुता के लिए अनेक संज्ञापदों का प्रयोग करते हैं अतः ग्रन्थ के सम्यक् अवबोधन के लिए उन प्रयुक्त संज्ञापदों का ज्ञान अपेक्षित है। इसमें भी प्रथम प्रकरण में ग्रन्थ में प्रयुक्त संज्ञा पदों का विवेचन किया गया है।
ग्रन्थ के द्वितीय प्रकरण प्रग्रह प्रकरण नाम से अभिहित है। इस प्रकरण में ग्रन्थ में प्रयुक्त उपलब्ध स्वरों का सनिमित्तक विस्तार पूर्वक विवेचन हुआ है।
तृतीयप्रकरण परिभाषाप्रकरण नाम से निर्दिष्ट है। वस्तुतः प्रत्येक शास्त्रग्रन्थों के निर्माण की एक अलग विधा होती है। उस ग्रन्थ की विधा के ज्ञान के बिना उसका सम्यक् रुप से अनुशीलन सम्भव नहीं है। इसीलिए ग्रन्थ के अभीष्ट ज्ञान के लिए अपने ग्रन्थ में अपनायी पद्धति का निर्देश करना परिभाषा कहा जाता है। इस प्रकार परिभाषाओं में ग्रन्थ की रचनापद्धति का विधान किया जाता है। व्यास शिक्षा के निर्माण की पद्धति ग्रन्थ के इस तृतीय प्रकरण में निर्दिष्ट की गयी है।
ग्रन्थ का चतुर्थ प्रकरण दीर्घप्रकरण नाम से ख्यापित है। इस प्रकरण में पदपाठ में पदादि और पदान्त हृस्व पदों का संहिता में दीर्घ हो जाने का विधान हुआ है। ग्रन्थ का पञ्चम, षष्ठं और सप्तम प्रकरण क्रम से आगमप्रकरण, लोपप्रकरण और वैकृत प्रकरण नाम से अभिहित है। अष्टम षत्व नामक प्रकरण मे नकार के णकार भाव का निरुपण हुआ है तथा दशम रेफ नामक प्रकरण में संहिता में हुए विसर्जनीय के रेफभाव का विधान हुआ है।
व्यास शिक्षा के एकादश प्रकरण विसर्ग सन्धि नाम से प्रोक्त हैं जिसमें विसर्जनीय के स्थान पर होने वाले विकारों का विवेचन है। द्वादश यत्वप्रकरण में नकार के स्थान पर यकारभाव, त्रयोदश अच्सन्धि प्रकरण में अकारादि स्वर वर्णों के विकार का विवेचन हुआ है। चतुर्दश अनैक्यप्रकरण में एकार और ओकार से परवर्ती अकार के पूर्वरुप होने का विवेचन किया गया है। षोड़श स्वरधर्म प्रकरण में उदात्तादि स्वरों का स्वरुप, सप्तदश स्वर संधि नामक प्रकरण में उदात्तादि स्वरों की संधियों का निरुपण है। अष्टादश हस्तस्वरविन्यास प्रकरण में उच्चारण के साथ-साथ हस्तद्वारा भी स्वरप्रदर्शन का विवेचन किया गया है। एकोनविंशतितम द्वित्व नामक प्रकरण में संयोग के स्थल पर वर्णों के द्वित्व होने तथा विंशतितम पूर्वागमप्रकरण में द्वितीय और चतुर्थ स्पर्श से पूर्व में पूर्ववर्ती स्पर्श क्रमशः प्रथम और तृतीय स्पर्श आगम का विधान हुआ है। एकविंशतितम द्वित्वनिषेध नामक प्रकरण में द्वित्व के निषेध का निरुपण हुआ है।
स्वरभक्ति रुप आगम के विधान ग्रन्थ के त्रयोविंशतितम स्वरभक्ति नामक प्रकरण में किया गया है। उसी प्रकरम में स्वरभक्ति के भेदों का भी निरुपण किया गया है।
ग्रन्थ का चतुर्विशतितम प्रकरण स्थानकरणप्रयत्न नाम से अभिहित है। इस प्रकरण में वर्णों उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले स्थानों और करणों का विवेचन हुआ है।
व्यासशिक्षा का प्रस्तुत संस्करण निर्मल संस्कृत भाष्य और अनुवाद सहित है। इसमें सूत्र के अनुवाद के पश्चात्, भाष्य का भी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। इस शिक्षा पर भाष्य सहित अनुवाद अप्राप्त था किन्तु इस संस्करण से संस्कृतानभिज्ञ ध्वनि और स्वर विषयक अनुसंधान कर्त्ता भी इससे लाभान्वित हो सकते हैं।
आशा है कि यह ग्रन्थ वेद और वेदों की शाखाओं के अध्ययन में रुचि रखने वाले और वैदिक ध्वनि विज्ञान के विद्यार्थियों को अत्यन्त लाभदायक होगा।
Reviews
There are no reviews yet.