जिस प्रकार से धरती, पानी, अग्नि, वायु, आकाश, अन्न, वस्त्र आदि मनुष्य जीवन के अभिन्न अङ्ग हैं, उसी प्रकार से योग भी मनुष्य जीवन का अभिन्न अङ्ग है। मनुष्य जीवन में से योग को अलग कर दिया जाये, तो जीवन दुःखमय व असार बन जाता है।
जीवन में पूर्ण सुख, शान्ति, सन्तोष, तृप्ति, निर्भयता एवं स्वतन्त्रता योग द्वारा ही सम्भव है। योग वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व विश्वस्तरीय जीवन का आधार स्तम्भ है। योग किसी व्यक्ति विशेष, समुदाय विशेष या देश विशेष के लिए न हो कर सम्पूर्ण विश्व के कल्याण व उन्नति के लिए है।
योगमय जीवन से ही मनुष्य आत्म-सन्तोष, आत्म-तृप्ति, आत्म- निर्भयता, आत्म-स्वातन्त्र्य व आत्मानन्द को पा सकता है।
योग की परिभाषा
प्रसंग के अनुसार ‘योग’ शब्द के अनेकों अर्थ लिए जाते हैं। यहाँ पर महर्षि पतञ्जलि व महर्षि वेद व्यास के अनुसार योग का अर्थ है ‘चित्त की वृत्तियों का निरोध या समाधि।’ समाधि में साक्षात्कार, दर्शन, प्रत्यक्ष होता है।
योग के द्वारा अतीन्द्रिय (इन्द्रियों से न दीखने वाले) पदार्थों का दर्शन होता है। उसी दर्शन को यहाँ पर समाधि स्वीकारा है। योग द्वारा जहाँ आत्मा व परमात्मा का दर्शन होता है, वहाँ महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, पाञ्च तन्मात्राओं, पाञ्च महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) का भी दर्शन होता है।
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