योग एक आकर्षक शब्द है। अध्यात्म प्रेमियों की तीव्र इच्छा रहती है कि उनकी योग में गति हो, वे योगाभ्यास करें। योगाभ्यास करते हुए प्रगति-उन्नति की अपेक्षा रखना स्वाभाविक है। जो अध्यात्म प्रेमी योग के प्रति थोड़े भी गम्भीर होते हैं, वे योगाभ्यास आरम्भ कर देते हैं। योगाभ्यास के अनेक पार्श्विक पहलू हैं। अष्टांग योग में मुख्यतः सारी बातें आ जाती हैं, किन्तु अष्टांग योग का अभ्यास करने के लिए अन्य अनेक सम्बन्धित विषयों को जानना-समझना आवश्यक होता है। योगाभ्यास करने वाले साधकों का समय-समय पर सैद्धान्तिक व व्यावहारिक अस्पष्टताओं से सामना होता रहता है। योग-अध्यात्म के विषय में पढ़ीसुनी अनेक बातों की पूरी स्पष्टता आरम्भ में नहीं हो पाती है, अतः योगाभ्यासी साधक उन बातों को प्रायः पूछा करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ‘योग पथ’ में योगाभ्यासी-साधकों को अनेक विषयों में स्पष्टता प्राप्त होगी। इसके लेखों में स्वामी विष्वङ् जी परिव्राजक ने अपने विस्तृत अध्ययन व योगाभ्यास के अनुभव के आधार पर अनेक अस्पष्ट विषयों को सरल शब्दों में विस्तार से खोला है। स्वामी जी ने अनेक योग-साधकों को भी वर्षों से देखा है, वे योगाभ्यासियों की जिज्ञासाओंउलझनों का वर्षों से समाधान भी करते रहे हैं। इस अनुभव के आधार पर उन्होंने अनेक विषयों को जोर देकर उठाया है। साधक कैसे बीच-बीच में अटक जाते हैं, कैसे वे अनेक आवश्यक विषयों को गौण समझ कर उपेक्षित कर देते हैं व कैसे एकांगी दृष्टिकोण अपना कर किसी ओर अधिक झुक जाते हैं- इत्यादि ऐसे अनेक विषय विभिन्न लेखों में आये हैं, जो कि इस पस्तक की विशेषता है। योगाभ्यासी साधक इन्हें पढ़कर अपने >
अन्दर अनेक विषयों में स्पष्टता का अनुभव करेंगे। जो उलझने भविष्य में आ सकती हैं, उनमें से अनेक का समाधान व तत्सम्बन्धी सावधानी पहले से ज्ञात हो तो समय और श्रम व्यर्थ नहीं जाता। जो योगप्रिय साधक स्पष्टता के साथ योग में चलने के इच्छुक हैं, उन्हें यह पुस्तक लाभकारी प्रतीत होगी।
‘परोपकारी’ पत्रिका में २०१३ व २०१४ में स्वामी विष्वङ् जी परिव्राजक ने इन आध्यात्मिक व दार्शनिक लेखों की श्रृंखला प्रस्तुत की थी, जो कि ‘आध्यात्मिक चिन्तन के क्षण’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत छपती रही व आध्यात्मिक पाठकों में प्रिय रही। पाठकों की माँग को ध्यान में रखते हुए अब इन्हीं लेखों को एकत्रित कर पुस्तकाकार में प्रस्तुत किया में जा रहा है।
स्वामी जी की मातृभाषा हिन्दी न होते हुए भी उन्होंने विशेष प्रयास से ये लेख लिखे हैं। आशा है हिन्दीभाषी पाठकों को भाषा ठीक लगेगी और स्पष्ट समझ में आयेगी। कहीं-कहीं वाक्य रचना प्रचलित हिन्दी से भिन्न प्रतीत होगी, परन्तु अर्थ बोध में बाधा नहीं होगी। योग की तरह योग-साधक भी आकर्षक व प्रिय लगते हैं। एक योग-साधक दूसरे योग-साधकों के हित की भावना रखता ही है। हमें इसी प्रकार विभिन्न योग-साधकों के विचार मिलते रहें, प्रभु से ऐसी प्रार्थना है
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