भारतीय समाज – शास्त्र में समाज चार वर्णों में विभक्त किया गया है। यह विभाजन ईश्वरीय है |
चातुर्वर्ण्या मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः । परमात्मा ने जब मानव की सृष्टि की तो उसको गुण, कर्म तथा स्वभाव से चार प्रकार का बनाया। ये वर्ण भारतीय शब्द कोष में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नाम से जाने जाते हैं ।
शासन करना और देश की रक्षा करना क्षत्रियों का कार्य है । ब्राह्मण स्वभाववश क्षत्रिय का कार्य करने के अयोग्य होते हैं। ब्राह्मण का कार्य विद्या का विस्तार करना है। मानव समाज में ये दोनों वर्ण श्रेष्ठ माने गये हैं।
वर्तमान युग में ब्राह्मण और क्षत्रिय, मानव समाज के सेवक मात्र रह गये हैं। समाज का प्रतिनिधि राज्य है और राज्य स्वामी है क्षत्रिय वर्ग का भी और ब्राह्मण वर्ग का भी। शूद्र उस वर्ग का नाम है जो अपने स्वामी की आज्ञा पर कार्य करे और उस कार्य के भले-बुरे परिणाम का उत्तरदायी न हो । आज उत्तरदायी राज्य है। ब्राह्मण (विद्वान वर्ग) और क्षत्रिय (सैनिक वर्ग) राज्य की आज्ञा का पालन करते हुए भले-बुरे परिणाम के उत्तरदायी नहीं हैं। इसी कारण वे शूद्र वृत्ति के लोग बन गये हैं।
यह बात भारत-चीन के सीमावर्ती झगड़े से और भी स्पष्ट हो गई । तत्कालीन मंत्रिमण्डल, जिसमें से एक भी व्यक्ति कभी किसी सेना कार्य में नहीं रहा, 1962 की पराजय तथा 1952-1962 तक के पूर्ण पीछे हटने के कार्य का उत्तरदायी है क्योंकि राज्य-संचालन में क्षत्रियों (सेना) का तथा ब्राह्मणों (विद्वानों) का अधिकार नहीं था ।
भारत का विधान ऐसा है कि इसमें 'अंधेर नगरी गबरगण्ड राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा' वाली बात है । एक विश्व – विद्यालय के बाइस-चांसलर अथवा उच्चकोटि के विद्वान को भी मतदान का अधिकार है । उसी प्रकार उसके घर में चौका-बासन करने वाली कहारन को भी मतदान का अधिकार है। देश में अनपढ़ों, मूर्खो और अनुभव विहीनों की संख्या बहुत अधिक है । वयस्क मतदान से राज्य इन्हीं लोगों का है। दूसरे शब्दों में ब्राह्मण वर्ग ( पढ़े-लिखे विद्वान) और क्षत्रिय वर्ग के लोग इनके दास हैं ।
यह कहा जाता है कि यही व्यवस्था अमेरिका, इंग्लैंड इत्यादि देशों में भी है । यदि वहाँ कार्य चल रहा है तो यहाँ क्यों नहीं चल सकता ? परन्तु हम भूल जाते हैं कि प्रथम और द्वितीय विश्वव्यापी युद्ध और उन युद्धों के परिणामस्वरूप संधियाँ एवं युद्धोपरान्त की निस्तेजता इसी कारण हुई थी कि इन देशों का राज्य जनमत से निर्मित संसदों के हाथ में था ।
प्रथम विश्व युद्ध में सेनाओं ने जर्मनी को परास्त किया, परन्तु संधि के समय अमरीका तो भाग कर तटस्थ हो बैठ गया । वुडरो विलसन चाहता था कि अमरीका ‘लीग ऑफ नेशंज' में बैठकर विश्व की राजनीति में सक्रिय भाग ले, परन्तु अमरीका की जनता ने उसको प्रधान नहीं चुना । इसी प्रकार वे वकील जो योरोपियन राज्यों के प्रतिनिधि बन वारसेल्ज़ की संधि करने बैठे तो उनमें न ब्राह्मणों की-सी उदारता थी, न क्षत्रियों का-सा तेज | वे बनियों ( दुकानदारों) और शूद्रों (मजदूर वर्ग) के प्रतिनिधि वारसेल्ज जैसी अन्यायपूर्ण, अयुक्तिसंगत और अदूरदर्शितापूर्ण संधि पर हस्ताक्षर कर बैठे। । दूसरे विश्व युद्ध का एक कारण था वारसेल्ज की संधि | इसके साथ-साथ इंग्लैंड की पार्लियामेंट तथा फ्रांस की कौंसिल की मानसिक और व्यवहारिक दुर्बलता दूसरा मुख्य कारण था । द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीकन मिथ्या नीति के कारण ही स्टालिन मध्य और पूर्वी युरोप तथा चीन पर अपने पंख फैला सका था ।
इस समय भी प्रायः संसदीय प्रजातंत्रात्मक देशों में शूद्र और बनिये स्वभाव वाले राज्य करते हैं। हमारा कहने का अभिप्राय है, वे लोग राज्य करते हैं जो शूद्र और बनिया मनस्थिति वालों को प्रसन्न करने की बातें कर सकते हैं। ब्राह्मण (विद्वान वर्ग) और क्षत्रिय (सैनिक वर्ग) तो इन शूद्र मनस्थिति वाले नेताओं के सेवक मात्र (वेतनधारी दास) हो गये अनुभव करते हैं। यही कारण है कि दिन-प्रतिदिन विश्व की दशा बिगड़ती जाती है ।
संसार में दुष्ट लोगों का अभाव नहीं हो सकता । आदि सृष्टि से लेकर कोई ऐसा काल नहीं आया, जब आसुरी प्रवृत्ति के लोग निर्मूल हो गये हों। इसका स्वाभाविक परिणाम यह निकलता है कि संसार में युद्ध निःशेष नहीं किये जा सकते । युद्ध इन आसुरी प्रवृत्ति के मनुष्यों की करणी का फल ही होते हैं । अतः दैवी स्वभाव के मानवों को, उन असुरों को नियंत्रण में रखने के हेतु सदा युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए । युद्ध में विजय क्षत्रिय स्वभाव के लोगों में शौर्य, शारीरिक तथा मानसिक बल और ईश्वर-परायणता के कारण प्राप्त होती है ।
इसी प्रकार जाति की शिक्षा तथा नीति का संचालन देश के विद्वानों के हाथ में होना चाहिए। उनके कार्य में स्वभाव से बनियों और शूद्र मनस्थितिवालों का हस्तक्षेप, यहाँ तक कि क्षत्रिय प्रवृति वालों का नियंत्रण भी, विनाशकारी सिद्ध होता है।
Reviews
There are no reviews yet.