सांख्यशास्त्र के महत्त्व के कारण उस पर अनेक आचार्यों ने भाष्य लिखे। यह क्रम परमर्षि कपिल के साक्षात् शिष्य आसुरि से आरम्भ हुआ। प्राचीनों के भाष्यों से महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ लेकर परवर्ती आचार्य अपने भाष्यों में उद्धृत करते रहे।
सांख्यशास्त्र की व्यापकता के कारण उसका प्रसार तो खूब हुआ किन्तु अनुपलब्ध होने से उन सन्दर्भों में निहित गूढार्थ से लोग वंचित रहे। इस दुरूह कार्य को करने का बीड़ा आचार्य उदयवीर शास्त्री ने अपने ऊपर लिया। सांख्य शास्त्र में गहरी पैठ होने के कारण आचार्य जी जैसा सांख्यशास्त्र मर्मज्ञ ही इस दुरूह कार्य को कर सकता था। अपने व्यापक अध्ययन के कारण आचार्य जी ने यत्र-तत्र बिखरे सन्दर्भों के मूल को खोज निकाला और प्रसंगानुकूल विकसित अर्थों का निर्धारण कर एक-एक शब्द में निहितार्थ को जान कर उनकी विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की।
इस प्रकार यह ग्रन्थ सांख्यशास्त्र और उसके व्याख्या-ग्रन्थों को समझने में और ऐतिहासिक दृष्टि से सांख्य सिद्धान्त के क्रमिक विकास को जानने में परम सहायक सिद्ध होगा।
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