सहस्राब्दियों पूर्व वेदव्यास द्वारा रचित ग्रंथ महाभारत के केंद्र (अर्थात् भीष्मपर्व के 25-42 अध्यायरूप) में स्थित है गीता। यह विश्वप्रसिद्ध लोकप्रिय ग्रंथ महाभारत का अंश भले ही है पर 18 अध्यायों में गुंफिर 700 श्लोकों की मालारूप इस गीता का अपना स्वतन्त्र रूप है, स्वतंत्र अस्तित्व है। वही सार्वत्रिक रूप से प्रसिद्ध भी है। मुख्यतया अनुष्टुभ छंद में निवद्ध (कहीं कहीं त्रिष्टुभादि के प्रयोगयुक्त) गीता के श्लोक भाषा में सरल परंतु भाव में गांभीर्यपूर्ण हैं।
विषयवस्तु की दृष्टि से गीता की प्रसिद्धि सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। यहाँ वर्णित कर्मयोग बहुत व्यावहारिक सिद्धान्त है। भारत में तो शिक्षित-अशिक्षित छोटे-बड़े तथा समाज के हर वर्ग के व्यक्तियों के होठों पर यह वाक्य सदैव मुखर रहता है कि ‘हमने तो कर्म कर दिया-फल की बात ईश्वर जाने’। ईश्वर के प्रति यह समपर्ण भाव जैसे मन को फूल-सा हल्का कर देता है। फिर फल या परिणाम को लेकर कोई तनाव, कोई कुंठा नहीं रहती मन में। पाश्चात्य देशों में भी गीता को अपने जीवन की मार्गदर्शिका बनाने वाले लोग कम नहीं हैं।
आजकल ‘गीता’ को ‘राष्ट्रीय ग्रन्थ’ घोषित करवाने की मुहिम छेड़ दी गई है। पर पर हंसी आती है उनकी बुद्धि पर। जो ग्रन्थ विश्वप्रसिद्ध है, विश्वजनीन है, विश्वभर में समाहत है उसे हम अपने देश तक सीमित क्यों रखना चाहते हैं? विश्वभर की 175 भाषाओं में अनूदित यह ग्रंथ अपने अन्तर्राष्ट्रीय रूप की उद्घोषणा कर रहा है। देश-विदेश के दार्शनिक, वैज्ञानिक और समाजशास्त्री सब ने समवेत स्वरों में इसे अत्यन्त प्रेरक ग्रंथ बताया है।
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