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तैत्तिरीयप्रतिशाख्यम

Taitriypratishakhyam

500.00

SKU 37036-PP00-0H Category puneet.trehan
Subject : Taitriypratishakhyam
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ग्रन्थ का नाम तैत्तिरीयप्रातिशाख्यम्

व्याख्याकार डॉ. जमुनापाठक

वैदिक वाङ्मय में प्रातिशाख्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वचरण की शाखाओं की संहिताओं से सम्बन्धित संहिता-विषयक विधान करना इस शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है। पदों की संधि से संहिता का निर्माण होता है, – यह इसका सिद्धान्त है। अत एव स्वचरण की संहिताओं से सम्बन्धित सन्धि-विषयक नियम इसमें विहित हैं। संहिताओं में प्रयुक्त पदों के मूल-स्वरूप की रक्षा के लिए उस चरण की संहिताओं से सम्बन्धित पदपाठ के नियम भी बनाये गये हैं। संहिता और पद दोनों के एक साथ अवबोध के लिए क्रमपाठ का ज्ञान अत्यन्त उपयोगी है अतः इसमें तद्विषयक भी विधान सन्निविष्ट है। वर्ण, पदों के मूल घटक हैं, अतः इसमें स्वचरणान्तर्गत आने वाली संहिताओं में प्रयुक्त वर्णों, उनकी उच्चारणप्रक्रिया, उनके स्वरूप और उच्चारणवैशिष्ट्य-विषयक विधान भी निर्दिष्ट हैं। उदात्तादि स्वर वैदिक भाषा की प्रमुख विशेषता है। अभीष्ट स्वर-सहित उच्चारण करने से ही अभीष्टार्थनिर्धारण सम्भव है, अतः मन्त्रों के अभीष्टार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए अभीष्ट स्वरों के साथ मन्त्रोच्चारण आवश्यक है। इसीलिए तच्चरण की संहिताओं के स्वरों का विवेचन इसमें किया है।

सम्प्रति आज अनेकों प्रतिशाख्य उपलब्ध हैं ऋग्वेदप्रातिशाख्य, तैत्तिरीयप्रातिशाख्य, वाजसेयनी प्रातिशाख्य, अथर्ववेद प्रातिशाख्य आदि।

इनमें तैत्तिरीयप्रतिशाख्य यद्यपि ऋक्प्रतिशाख्य तथा शुक्लयजुप्रतिशाख्य से आकार में छोटा है किन्तु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें कृष्णयजुश्चरण की संहिताओं में उपलब्ध वर्ण, उनकी उच्चारण प्रक्रिया, उनके स्वरूप तथा उनके उच्चारण से सम्बन्धित वैशिष्ट्य का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया है। इन संहिताओं से सम्बन्धित संधियों के पदपाठ और क्रमपाठ के नियम भी विहित है। संहिता में प्रयुक्त उदात्तादि स्वरों का भी विवेचन किया गया है। इस प्रतिशाख्य की निम्न विशेषताएँ हैं

  1. वर्णोच्चारण के विषय में जितना सूक्ष्म विवेचन इस प्रतिशाख्य में है, वैसा अन्यत्र नहीं है।
  2. इसमें जैसा प्रग्रह संज्ञक स्वरों का जितना विस्तृत निरूपण है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है।
  3. इस ग्रन्थ में संहितास्थ दीर्घ स्वरों के पदपाठ में हृस्व होने का भी विधान किया गया है।
  4. इस प्रतिशाख्य में अनुस्वारागम का जितना विस्तृत विवेचन हुआ है उतना अन्य प्रातिशाख्यों में नहीं है।
  5. इसमें संहिता के चारों प्रकारों पदसंहिता, अक्षरसंहिता, वर्णसंहिता और अङ्ग संहिता का निर्देश किया है।

प्रस्तुत संस्करण तैतरीय प्रातिशाख्य के वैदिकाभरण नामक भाष्य सहित है। इसमें वैदिकाभरण भाष्य का हिन्दी में भी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। इस संस्करण में सूत्र और भाष्य की गम्भीरता को दृष्टि में रखकर स्थल-स्थल पर आवश्यक और उपयोगी टिप्पणियाँ भी संयोजित की गई है जिससे भाष्य के अनुसार सूत्र का अभीष्टार्थ और भाष्यार्थ अवगत हो जाय।

आशा है कि इस संस्करण के माध्यम से हिन्दी भाषा के माध्यम से वेद का अध्ययन करने वाले जिज्ञासुओं के लिए तैत्तिरीयप्रातिशाख्य के सूत्रों और वैदिकाभरण भाष्य को समझने में सुगमता होगी

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