जैसे प्रतिष्ठा है, उत्तम कार्यका फल जैसे उन्नति है, सत्कार्यका फल जिस प्रकारसं संसारमें यराको प्रानि है ॥ १७॥ और शांतिका फल जिस प्रकारस मुक्ति है, तपस्याका फल जैसे तुम्हारे समान ज्ञान विज्ञानके जाननेवाले विश्वदर्शी महाभाग पुरुषका सहवास, अथवा साक्षात्का होना है ॥१८॥ समस्व प्राणियों के बीचमें दुपाया उत्तम है और दुपायोंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणमें ज्ञानवान् श्रेष्ठ है और ज्ञानियोंसे विज्ञानी श्रेष्ठ है ।॥ १९ ॥ और तुम्हारे समान भगवद्भक्तिके प्रेमीपुरुष ये सभी श्रेष्ठ हैं, इस कारण आज तुम्हारे दर्शन होनेसे मैंने अपनी चिरकालसे संचित की हुई तपस्याका अभीष्ट फल यथा मोक्षफला शान्तिस्तपस्यायाः फलं यथा ॥ भवादृशस्य संसर्गः साक्षात्कारश्च पुण्यदः ॥ १८ ॥ प्राणिनां द्विपदः श्रेष्ठो जीवेषु ब्राह्मणस्तथा ॥ विप्राणां ज्ञानिनः श्रेष्ठा विज्ञानी जिततपः पुण्यफलमद्य ममागतम् ॥ २० ॥ नराणां सन्ति सर्वेषां नेत्रादीनीन्द्रियाणि हि ॥ तानि येषां न सार्थानि नरास्ते च ततः परः ॥१९॥ भगवद्भक्तिरसिकं भवन्तं प्रविलोक्य वे ।। चिरा मृन्मयाः परम् ॥२१॥ विद्या च विद्यते येषां ज्ञान नो विद्यते पुनः ।। धनानि दानहीनानि शक्तिश्च कार्य्यतो विना ॥२२॥ तेषां विडम्बनार्थाय सर्वाणि विफलाई विफलानि वै ॥ भवादृशास्तु विद्यादेर्लेभिरे फलतां शुभाम् ॥ २३ ॥
प्राप्त किया ॥२०॥ विचार कर देखो कि मनुष्यमें दो हाथ, दो पैर, दो नेत्र, दो कर्ण और भ्राण रसना अन्तःकरण आदि सभी है परन्तु जो इन सबका उचित कार्य नहीं करते हैं उनमें और काठ की पुतलीमें क्या विशेषता है? इस कारण जो इनका उचित व्यवहार करते हैं वे ही वास्तवमें मनुष्य हैं, इसके विपरीत करनेवाले मनुष्य जड़के समान हैं, इसमें सन्देह नहीं ॥२१॥ और जिनके पास विद्या है परन्तु ज्ञान नहीं, धन है पर पुण्य नहीं, शक्ति है किन्तु उसका कार्य नहीं किया जाता ॥२२॥ उनकी स्थिति विडम्बनामात्र है और उनके सर्व कार्य विफल हैं,
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