आज हम जितने भी मतमतान्तर देख रहे है, लगभग सभी इस ‘वाद’ के पोषक हैं। लेखक का दावा है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का गम्भीर अध्ययन करने के पश्चात् आप जीव-ईश्वर का अंश है, अथवा अविद्या, माया आदि के प्रभाव से ईश्वर ही जीव हो गया है। ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है, जगत् वास्तव में हैं नहीं केवल दिखाई देता है अर्थात् भ्रम है, आदि सभी मान्यताओं की निःसारता को भली भाति समझ जाएंगे।
इन मान्यताओं की सिद्धि में रस्सी में सांप की भ्रान्ति, मृगतृष्णा की तरह रेत में जल की भ्रान्ति, सीप में चांदी की भ्रान्ति आदि जो दृष्टान्त दिए जाते है इनका उपनिषद् आदि सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय में लेष मात्र भी उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इनकी जो युक्तिसंगत सरल विवेचना की गई है उससे अध्यास, अध्यारोप आदि की नींव पर खड़ा यह अद्वैतवाद रूपी भवन रेत पर खडे भवन की तरह भरभरा कर ढहता स्पष्ट दिखाई देता है।
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