सृष्टिस्थित्यन्तकरणी ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम्। स संज्ञां याति भगवानेक एवं जनार्दनः ।। प्रधानपुरुषव्यक्तकालास्तु प्रविभागशः। रूपाणि स्थितिसर्गान्तव्यक्तिसद्भावहेतवः ।। व्यक्तं विष्णुस्तथाव्यक्तं पुरुषः काल एवच । क्रीडतो बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय ।। एक एव शिवः साक्षात् सृष्टिस्थित्यन्तसिद्धये । ब्रह्मविष्णुशिवाख्याभिः कलनाभिर्विजृम्भते ।।
भारतीय जनमानस पुराण को बेद की तरह अपौरुषेय मानते हुए उसके समक्ष श्रद्धावनत रहने में गौरव की अनुभूति करता है। अतएव भारतीय वाड्मय में पुराणों की व्यापकता एवं महता का गान अपरिमित तथा असन्दिग्ध है और वे भारत के अतीतकालीन धर्म और संस्कृति के मूर्तिमान् गौरव के प्रतीक है। आज की बौद्धिकता भी पुराणों के प्रभाव और उनके महत्त्व को रंचमात्र भी कम नहीं कर पायी है। इस समय भी उनके प्रति वही श्रद्धा और सम्मान का भाव दृष्टिगोचर होता है, जैसा सुदूर अतीत में था।
अपौरुषेय वेद में भी पुराणों की चर्चा है और उन्हें वेदों की हो भाँति नित्य और प्रमाणभूत बताया गया है। जैसे अध्वर्यु यज्ञ में कुछ पुराण पाठ के लिए यह कहकर प्रेरणा देता है कि ‘पुराण’ वेद है। यह वहीं वेद है- ‘वानुपदिशति पुराणम्’। वेदः सोऽयमिति । किशि पुराणमाचक्षीत एवमेवाध्वर्युः सम्प्रेषितः
(शतपथवाह्मण १३४९१३)।
इसी प्रकार अथर्ववेद, बृहदारण्यकोपनिषद् आदि वैदिक वाङ्मय में पुराणों के प्रति प्रकूट श्रद्धा प्रकट की गयी
है। इस प्रसङ्ग में आगे और भी प्रकास डाला जाएगा, अस्तु
मत्स्यपुराण में कहा गया है कि-‘पुराणं सर्वसात्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्
श्रुति, स्मृति एवं पुराण-ये तीनों वैदिकधर्म के सनातन आधारस्तम्भ है। इन तीनों में श्रुति प्रधान है। सुतिमूलक होने से ही स्मृति एवं पुराणों की प्रामाणिकता आज भी अक्षुण्ण है। मोमांसा एवं धर्मशास्त्र से सम्बन्धित ग्रन्यों में श्रुति एवं स्मृति के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन मिलता है। साथ ही श्रुतिवाक्यों के बलाबल का विचार करके उसका वहाँ तर्कपूर्ण विधि से यथास्थान समन्वय भी किया गया है। श्रुतिवाक्यों का यथार्थ बोध कराने के लिये ही इतिहास और पुराणों को सहायता को आवश्यकता पड़ती है। आदिमानव मनु ने अपनी स्मृति में कहा है-
‘इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्। विभेत्यल्प श्रुताद् वेदो मामयं प्रहरेदिति।।
भारतवर्ष में अंग्रेजों की गुलामी के फलस्वरूप पा धात्य पद्धति का प्रचार-प्रसार एवं प्रभाव अधिक होने के कारण पुराणों के विषय में पाश्चात्य शिक्षा-शिक्षित भारतीय विद्वानों ने अनेक दुराग्रहपूर्ण कुतर्क उपस्थित किये। उनका यह कथन ‘पुराण केवल गपोढ़े हैं’ का समाज पर पर्याप्त प्रभाव भी पड़ा, फलस्वरूप तत्कालीन उस समाज ने पुराणों को पर्याप्त अवहेलना भी की। किन्तु कुछ समय बाद प्राच्य तथा पाक्षात्य सभी विद्वानों ने सर्वसम्मत्या यह स्वोकार किया है कि पुराण का अधिकांश भाग प्रामाणिक है, अतएव वे अतिमहत्त्वपूर्ण व स्वीकार्य हैं। इतना ही नहीं अनेक पाक्षात् इतिहासकारों
ने भी पुराणों में वर्जित ऐतिहासिक स्थलों के आधार पर हो भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की रचना करने को लाचार साहस भी प्रकट किया है।
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