शाश्वत एवं अपौरुषय भगवान् वेद, ऋषि-वाक्य के रूप में जब प्रकट होते हैं- तो प्रवृत्ति-मार्ग एवं निवृत्ति-मार्ग को दृष्टिगत रखते हुए ही ऋगादि चतुष्टय में अभिव्यक्त होते हैं।
‘वेदा ही यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः’ का सन्देश जहाँ हमें भौतिक जीवन के सत्कर्ममय तथा यज्ञमय स्वरूप में प्रवृत्त करता है- वहीं हमें निवृत्तिमार्ग या मोक्ष की ओर भी ध्यान देने को कहता है। इसी कारण शुक्लयजुः प्रातिशाख्य में प्रातिशाख्य द्वारा वैदिक-पाठ के नियमों एवं विधिपूर्वक स्वाध्याय से मोक्षप्राप्ति का उपदेश भी दिया
गया है।
जहाँ भौतिक जीवन के लिए कर्मों या यज्ञिय-कर्मों को अनिवार्य माना गया है- वहीं हमारे वैदिक साहित्य में क्रमशः भौतिक जीवन से ऊपर उठने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में “दैवों धियं मनामहे” अर्थात् हमें दैवी बुद्धि भी प्राप्त हो – का उपदेश भी दिया गया है। भौतिक जीवन के शास्त्रीय कर्मानुष्ठान में शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि हो जाने पर भारतीय जीवन पद्धति में मनुष्य को देवत्व भी प्राप्त हो जाता है। ततश्च आध्यात्मिक जीवन की अभिलाषा की पूर्ति हेतु “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः” के सन्देश का भी मनन मनुष्य करता है।
लेकिन इन तीनों ही जीवन पद्धतियों में तारतम्य बिठाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया का जो उपदेश देता है- वह वेद का आरण्यक-भाग है।
विद्वानों ने इस आरण्यक शब्द पर जो विचार किये हैं- उनमें एक-दो को छोड़कर वे “आरण्यक” शब्द के मूलप्रवृत्तिनिमित्त को स्पष्ट नहीं करते – ऐसा मेरा मानना है।
इसे स्पष्ट करने के लिए विद्वानों के विचारों पर थोड़ा विचार कर लेना सुविधाजनक होगा- आचार्य सायण ने अरण्य अर्थात् वन या जंगल में जिस वेद- भाग का अध्ययन किया था- उसे आरण्यक कहने की परम्परा चल पड़ी।