Vedrishi

अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृति

Ashtadhyayi Bhashya Prathamavriti

1,200.00

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Subject: Sanskrit Grammar
Edition: 2021
Publishing Year: 2021
SKU #NULL
ISBN : NULL
Packing: 3 Volumes
Pages: 1962
BindingHard Cover
Dimensions: 14X22X12
Weight: 2510gm
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ग्रन्थ का नाम अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ति

अनुवादक का नाम श्री पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी

वेदों के अर्थ में व्याकरण का अत्यन्त महत्त्व है। महर्षि पतञ्जलि ने वेदांगों में व्याकरण को मुख्य कहा है। संस्कृत भाषा के अध्ययन और संस्कृत साहित्य के अध्ययन के लिए भी संस्कृत व्याकरण का अत्यन्त महत्त्व है। संस्कृत पर अनेकों व्याकरणाचार्यों द्वारा लिखे गये अनेकों ग्रन्थ आज उपलब्ध है किन्तु इनमें से आर्ष होने से महर्षि पाणिनि का अष्टाध्यायी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।

महर्षि दयानन्द जी ने पठन-पाठन व्यवस्था के अन्तर्गत इस ग्रन्थ के अध्ययन का विधान किया गया है। इस ग्रन्थ का महत्त्व प्राचीनकाल से ही है तथा बौद्ध चीनी यात्रियों द्वारा भी इसके महत्त्व का वर्णन किया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसाङ्ग ने अपनी यात्रा के वृतान्त में लिखा है

पूर्ण मनोयोग से महर्षि पाणिनि ने शब्दभण्डार से शब्दराशि का चुनना प्रारम्भ किया। 1000 श्लोकों में सारी व्युत्पत्ति समाप्त हो गई है। प्रत्येक श्लोक 32 अक्षरों में था। इसी में ही सारी प्राचीन तथा नवीन ज्ञानराशि परिसमाप्त हो जाती है। शब्द एवं अक्षर विषयक कोई भी ज्ञान इससे शेष नहीं बचा” – ह्यूनसाङ्ग हिन्दी अनुवाद, प्रथम भाग 221

पाश्चात्य-विद्वानों की भी पाणिनि के विषय में अति उत्कृष्ट भावना का परिचय मिलता है

  1. मोनियर विलियम कहता है कि संस्कृत का व्याकरण अर्थात् अष्टाध्यायी मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम भाग है, जो कि मानव मस्तिष्क के सामने आया।
  2. हण्टर भी कहता है कि मानवमस्तिष्क का अतीव महत्त्वपूर्ण आविष्कार यह अष्टाध्यायी है।
  3. लेनिनग्राड के प्रो.टी. वात्सकी कहते हैं मानवमस्तिष्क की अष्टाध्यायी सर्वश्रेष्ठ रचना है।

इस तरह अष्टाध्यायी के महत्त्व को बुद्धिजीवियों नें स्वीकार किया है। किन्तु विगत कुछ शताब्दियों से इस ग्रन्थ का प्रचलन कम हो गया है, इसके स्थान पर प्रक्रिया ग्रन्थों का प्रचलन बढ़ गया। इन प्रक्रिया ग्रन्थों के कारण संस्कृत का पठन-पाठन अत्यधिक नीरस हो गया और लोगों में संस्कृत के प्रति रूचि खत्म होने लगी। इन ग्रन्थों के कारण अष्टाध्यायी का भी क्रम विचलित हो गया। यदि व्याकरण को सरलता से समझना है और संस्कृत को पुनः लोक व्यवहार में लाना है तो अष्टाध्यायी के प्रचार-प्रसार की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके लिए अष्टाध्यायी और प्रक्रिया ग्रन्थों के तुलनात्मक दृष्टिकोण को अवश्य देखना चाहिए जो निम्न प्रकार है

  1. इस ग्रन्थ में सूत्रों की रचना इस प्रकार है कि इसमें अधिकार और अनुवृत्ति के माध्यम से ही बिना किसी बाह्य शब्द के अध्याहार के बिना ही सूत्र का अर्थ हो जाता है जैसे कि – “आद् गुण इस सूत्र में एकः पूर्वपरयोः और इको यणचि तथा संहितायाम् से एकः, पूर्वपरयोः, अचि और संहितायाम् इन पदों की अनुवृत्ति आ रही है। इससे इसका अर्थ – “आत् अचि संहितायां पूर्वपरयोः गुणः एकः। इस प्रकार सूत्रार्थ आसानी से हो जाता है। मूल अष्टाध्यायी की पुस्तक ही छात्र के लिए यह सब कुछ प्रदर्शित कर देती है। इसमें अर्थ रटने का कोई कार्य नहीं पड़ता है। इसके विपरीत लघुकौमुदी, मध्यमकौमुदी, सिद्धान्तकौमुदी, प्रक्रिया कौमुदी वाले कौमुदी-परिवारों के छात्र रटते हुए जीवन भर इसको समझ नहीं पाते कि सूत्र का अर्थ यह कैसे बन गया। व्याकरणाचार्य हो जाने पर भी अनुवृत्ति के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ ही प्रायः सर्वत्र देखे जाते हैं। सूत्रों का कंठस्थ किया हुआ अर्थ देर तक स्मृति में चाहते या न चाहते हुए भी नहीं रह सकता यह स्वाभाविक बात है।
  2. अष्टाध्यायी क्रम में यह भी विशेष है प्रौढ़ छात्र अष्टाध्यायी के सूत्रों को विना रटे पहले अध्यापक के द्वारा पढ़ने के समय बुद्धि में बिठा लेते हैं, आगे बार-बार उन सूत्रों का प्रयोग, सिद्धि के समय अध्यापक के द्वारा अभ्यास हो जाता है। उसके पश्चात् वे सूत्र समझ लिए जाते हैं इनके नीचे लाल चिह्न लगवा दिये जाते हैं अथवा लगा देने चाहिये जिससे समझे हुए सूत्रों का ज्ञान अनायास ही उनकों हो जाता है। अपने अभ्यस्त चिह्नित सूत्रों को देखने से प्रौढ छात्रों के अध्ययन का उत्साह भी खूब बढ़ जाता है। यह भी रहस्य अष्टाध्यायी पद्धति का है और पद्धतियों द्वारा ऐसा सम्भव नहीं है।
  3. अष्टाध्यायी में सब प्रकरण वैज्ञानिक रीति से सुसंबद्ध हैं, इसलिए उन-उन प्रकरणों का ज्ञान अनायास ही हो जाता है, जैसे कि सर्वनाम, इत् संज्ञा, आत्मनेपद, परस्मैपद, कारक, विभक्ति, समास, द्विर्वचन, संहिता, सेट् अनिट् प्रकरणों के सूत्र परस्पर सुसम्बद्ध हैं। अतः उनके अर्थ जानने में छात्रों को कोई बाधा नहीं होती है। यदि किसी छात्र को इट् या द्विर्वचन विषय में शङ्का होती है, तो उसको अष्टाध्यायी-क्रम से पढ़ा हुआ छात्र दो-तीन मिनट में ही उस प्रकरण के समस्त सूत्रों का पाठ करके निःशंक हो जाता है। कौमुदी-क्रम से पढ़ा हुआ छात्र तो कठिनाई एवं परिश्रम से भी अच्छी तरह सूत्रार्थ के बनने में हेतु नहीं बता सकता एवं निस्संदिग्ध नहीं होता। कैसे? उस क्रम में तो सूत्र भिन्न-भिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। भिन्न-भिन्न प्रकरणों में पठित सूत्रों का परस्पर ज्ञान कैसे हो सकता है?
  4. अष्टाध्यायी में विप्रतिषेधे परं कार्यम्, असिद्धव दत्राभात्, पूर्वात्रासिद्धम् इत्यादि अधिकार सूत्रों के कार्य में सूत्र-क्रम का ज्ञान अत्यधिक आवश्यक ही नहीं, किन्तु अनिवार्यतया अपेक्षित है। सूत्रपाठ के क्रम के ज्ञान के विना पूर्व’ ‘परं’ ‘आभात्’ ‘त्रिपादी’ ‘सपाद सप्ताध्यायी’ ‘बाध्य-बाधकभाव, इत्यादि का ज्ञान पढ़ने वालों एवं पढ़ाने वालों एवं पढ़ाने वालों को भी कभी संभव नहीं है। सिद्धान्त कौमुदी प्रक्रिया-क्रम से पढे़ हुए छात्रों को सूत्र-पाठ के क्रम के ज्ञान न होने से महाभाष्य पूर्णतया बुद्धि में नहीं बैठता है। प्रत्येक पद एवं प्रत्येक सूत्र में वे बहुत कष्ट का अनुभव करते हैं, यह स्वाभाविक भी है।

सिद्धान्त कौमुदी के क्रम से पढ़ा हुआ व्याकरण छात्रों की स्मृति से शीघ्र लुप्त हो जाता है। बार-बार स्मरण पर शीघ्र विस्मृत हो जाता है। सभी प्रकरण रहित पढ़नेवाले छात्रों के स्वानुभव ही इसमें प्रमाण है।

  1. अष्टाध्यायी क्रम में सूत्रों की प्राप्ति सामान्यतया समझ में आ जाती है। सिद्धान्त-कौमुदी क्रम में तो जो सूत्र जहाँ उल्लिखित है, वहीं उसकी प्राप्ति बुद्धि में बैठती है किन्तु अन्यत्र उस सूत्र की प्राप्ति छात्र के मस्तिष्क में सुगमता से नहीं बैठती है। एक उदाहरण में प्रयुक्त सूत्र का तत्सदृश अन्य उदाहरण में प्रयोग करने में आधुनिक प्रक्रिया से पढ़े हुए छात्र सर्वथा डरते हैं।
  2. लेट् लकार के रूप स्वर-वैदिक प्रकरणों का अर्थोदाहरण, उनकी सिद्धि भी अष्टाध्यायीक्रम में आरम्भ सेही वृद्धिरादैच् इस सूत्र के उदाहरण की सिद्धि में ही छात्र जान लेते हैं। सिद्धान्त-कौमुदी-क्रम में तो ग्रन्थ के अन्त में होने से आजीवन भी उसमें यत्न नहीं करते है, क्योंकि वह प्रकरण उपेक्षित कर दिया गया है, अतः उस प्रकरण में कैसे गति हो!

अन्य भी बहुत सारे दोष सिद्धान्त-कौमुदी प्रक्रिया से व्याकरण के अध्ययन अध्यापन में है।

इस लिए जितना लाभ अष्टाध्यायी के छः महीने के अध्ययन से मिलता है उतना लाभ कौमुदी आदि प्रक्रिया ग्रन्थों के तीन साल के अध्ययन पर भी नहीं मिलता है।

अष्टाध्यायी की विशेषताओं के बाद प्रस्तुत संस्करण की विशेषताओं का कुछ वर्णन इस प्रकार है

  1. पदच्छेद-सूत्र के पदों को पृथक् करके बताया गया है।
  2. विभक्ति वचन किस विभक्ति का कौन सा वचन है यह दर्शाया गया है।
  3. किस शब्द के समान इसके रूप चलेंगे यह बताया गया है।
  4. समास जो पद समस्त है, उसका विग्रह दिखाकर, अन्त में समास कौन सा है यह बताया गया है।
  5. अनुवृत्ति सर्वत्र अनुवृत्ति दिखाने का विशेष यत्न किया है।
  6. अर्थ अर्थ अनुवृत्ति के आधार पर संस्कृत में लिखा है। भाषार्थ में भी बडे़ कोष्ठक में सूत्रों के सब पदों को दर्शा कर ही अर्थ किया है जिससे भाषार्थ बहुत स्पष्ट हो जाता है।
  7. उदाहरणों को संस्कृत में प्रस्तुत किया है।
  8. सूत्रों से सम्बन्धित शब्द सिद्धि को परिशिष्ट में अलग से दर्शाया गया है।

इस प्रकार यह ग्रन्थ संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन के लिए अतीव उपयोगी है। इसका प्रचार-प्रसार कर संस्कृत की सभी को उन्नति करनी चाहिए।

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