संस्कृतज्ञों में बहुप्रचलित उक्ति द्वादशभिर्वर्षैर्व्याकरणं श्रूयते' के कारण सामान्यतः संस्कृत व्याकरण को क्लिष्ट व दुरवगाह कहकर उसकी उपेक्षा की जाती है, परन्तु भाषा के सम्यग् एवं सरलरीत्या बोध के लिए व्याकरण को छोड़कर अन्य कोई उपयुक्त साधन नहीं है ।
पाणिनीय व्याकरण संस्कृत भाषा का सर्वाङ्गीण व्याकरण है जो अपने सर्वातिशायी गुणों के कारण अन्य सभी व्याकरण
सम्प्रदायों का शिरोमणि कहा जाता है । पाणिनीय व्याकरण के अन्तर्गत आचार्य पाणिनि प्रोक्त पञ्चपाठी (सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादि तथा लिङ्गानुशासन), कात्यायन रचित वार्त्तिक तथा महर्षि पतञ्जलि का महाभाष्य सम्मिलित हैं । पाणिनीय सूत्रपाठ अष्टाध्यायी के नाम से जाना जाता है । अष्टाध्यायी पर अभी तक कोई आधुनिक रीति से विश्लेषणात्मक व्याख्या हिन्दी भाषा में उपलब्ध नहीं है । प० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का 'अष्टाध्यायी भाष्य' एक स्तुत्य प्रयास है, परन्तु उनकी यह व्याख्या सूत्रार्थ व रूपसिद्धि तक सिमट कर रह गई है। शंका-समाधानों व वार्त्तिकों का समावेश न होने के कारण यह भाष्य व्युत्पन्न अध्येताओं की ज्ञानपिपासा को शान्त करने में सर्वथा असमर्थ है । इस दिशा में रोहतक से आचार्य सुदर्शनदेव के द्वारा 'अष्टाध्यायी – प्रवचन' नाम से एक प्रयास किया गया परन्तु इसे पूज्य जिज्ञासु जी की प्रथमावृत्ति का पुनर्मुद्रण मात्र कहा जा सकता है । फलतः अष्टाध्यायी की सरल भाषा में एक उपयोगी व्याख्या की महती आवश्यकता प्रतीत हो रही थी । इसी उद्देश्य को दृष्टि में रख कर प्रस्तुत व्याख्या की रचना की गई है । जिज्ञासु जनों के लिए अष्टाध्यायी (सूत्रपाठ) का एक उपयोगी संस्करण व्याख्याकार के द्वारा संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली से प्रकाशित किया गया था । उसी पाठ को आधार मानकर अष्टाध्यायी की प्रस्तुत चन्द्रलेखा टीका तैयार की गई –
अगाधगाध दिव्यचक्षु महर्षि पाणिनि के अष्टाध्यायी सदृश दुरवगाह शास्त्र का भाष्य मुझ जैसे अल्पधी व्यक्ति के द्वारा लिखा जाना आचार्य कैयट के शब्दों में दुस्साहस मात्र कहा जायेगा', परन्तु कैयट ने ही इसका समाधान भी प्रस्तुत कर दिया है ।
अकारण-करुणा-सम्पादक अनाथनाथ – विश्वनाथ की अहैतुकी कृपा लवलेश से ही चिरप्रतीक्षित यह कार्य आज पूर्ण हो सका है एतदर्थ सर्वप्रथम मैं उस प्रभु का कोटिशः धन्यवाद ज्ञापन करता । स्वर्गगत पूज्या माता जिनकी धुरीण प्रेरणा सदा उन्मेषमयी व अभिषेकमयी रही तथा कैलासवासी पूज्य पिता जिन्होंने मुझे न केवल आद्यक्षर का ज्ञान दिया अपितु संस्कृत व्याकरणशास्त्र में अंगुलि पकड़ कर चलना सिखाया, आप दोनों के श्रीचरणों में यह धन्यवाद रूप श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर मैं आपके प्रति अनृणी नहीं हो सकता ।
जिन आचार्यों, व्याख्याकारों व विद्वानों से इस कार्य के अनुष्ठान में मैंने सहायता ली है, उन सभी के प्रति मैं श्रद्धावनत हूँ । वस्तुतः इस ग्रन्थ में मेरा अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है वह उन आचार्यों का है जिन्होंने अत्यधिक श्रमपूर्वक इस ज्ञानसरित् को अद्ययावत् जीवित रखा है ।
चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली के स्वत्वाधिकारी श्रीबल्लभदास गुप्त ने अल्पसमय में मुद्रण-दोषों से रहित सर्वशुद्ध रूप में इस व्याख्या को प्रकाशित किया । अतः अपूर्व मनोयोग एवं निष्ठामय सहयोग के लिए मैं आपका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ ।
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